धूप करे हस्ताक्षर | Dhoop Kare Hastachar

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Dhoop Kare Hastachar by सियाराम मिश्र - Siyaram Mishr

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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चौराहे के बल्ब जल उठे फिर सूरज उग आया लडता है अब तट सागर का पावस की रात में दुबक रही है खेड खेत की कैसे गीत जियेगा मेरा श्रेय किसी का काम किसी का मेघ मत करो गीला ऑगन मैं हूँ एक सुलगता टापू प्रिय फागुनी शिकायत जैसी धूप करे हस्ताक्षर काया दर्प उगलती है कोई रोक न पायेगा कविता के दरवाजे पर ताले है शरद आ गई है व्गरवों से जुड गये इस तरह जियो आओ तुम आओ यह उल्टा पल्ला है रश रही दे गाय दुअपरे त दै सादा ष फागुन के देन प्यार कहा & ज किसी ने हे अट रहा यह ताड गोबर पथनी यह बात तुम्हारी है शब्द रेशते बौस शिष्टाकाशे के 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 12 मेरे लोहर बढ़ैया जगती जद में अतीत की यादों के गटठर तन्द्रिल बैठी गौरैया मत भागो उस महानगर को कविता अब कौन सुने तू असीम है मनुष्य असीम है भारत के पति हो देखा तुमको जग में फिर फिर धोखा खाया मैं पादप सा তরু मैंने दिन भर ध्यान लगाया सब चौराहे एक तरह के अगर थके हो चलते चलते एक पेड नीम का सोचता है आज हे अतन्दिल चिर सजग कवि नौका खोलो प्रिय स्वागते के मधुर गान तू ही दीप जलाने वाला चतकबरी धुप भी ओ बसन्त हे बसन्त तुम आओ आनन्द ओर है मन मेरा कर दो स्वदेश की माटी का 128 129 130 131 132 133 134 136 137 140 141 142 143 144 145 145 147 148 148 150 151 152 153 154 155




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