गांधीजी के जीवन प्रभात | Gandhiji Ka Jeevan Parbhata

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Gandhiji Ka Jeevan Parbhata by अशोक - Ashok

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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चोरी और प्रायश्चित्त १६ कटवाकर कजं चुका दिया गया, पर मेरे लिए यह घटना श्रसह्य होगरई । इसके बाद मेंने चोरी न करने का निरचय किया। मन में आ्राया कि पिताजी के सामने जाकर चोरी कबूल कर लूं। अंत में मेंने चिट्ठी लिख- कर कांपते हाथ से पिताजी को दी । वह वीमार थे । चिट्ठी देकर में उनकी चौकी के सामने बैठ गया । उन्होंने चिट्ठी पढ़ी । आंखों से मोती की वूंदें टपकने लगीं। चिट्ठी भीग गई । थोड़ी देर के लिए उन्होंने आंखें मूंद लीं, चिट्ठी फाड़ डाली | चिट्ठी पढ़ने को उठ वेठे थे, सो फिर लेट गये। में भी रोया । पिताजी को कितना दुःख हुआ है, यह्‌ समभ सका । इन मोती की वूंदों के > মিটি पे ~~~ 7“ 7 বাট हज | ছি चोरी का सच्चा प्रयश्चित्त




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