मध्यकालीन हिन्दी कृष्ण काव्य में रूप सौन्दर्य | Madhyakalin Hindi Krishna Kavya Me Roop Soundarya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कवियो की कृत्तियो के उद्धरणो द्वारा किया गया ই ইবি ग्रालम्बन की स्वत सभवी छवि ग्रौर सौन्दय-साधक उपकरणो से बढ जाने वाली छवि को ही रूप-सौन्दयं के विश्लेषण का निकष माना गया है । आलम्बन के आक- पेण को बढाने वाली सभी प्रसाधक सामग्रियों को भी सौन्दर्योपकारक रूप मे ग्रहण करके एसे सभी तत्वों का आत्मसात्‌ सौन्दर्य के भ्रन्तगेत कर लिया गया है, जिनसे आश्रय झआलम्बन के रूप-सौन्दयें की वृद्धि होती है । सौन्दर्य के स्वरूप-निर्घा रण मे विभिन्न मनीषियों के अतिवादी विचारी की भिन्नता मे समन्वयात्मक प्रवृत्ति अपनाई गई है । व्यक्तिवादी अथवा श्रात्मवादी श्रौर विषयवादी या वस्तुवादी इन दोनो विचारो का समन्वय करते हुए प्रस्तुत प्रबन्ध मे सौन्दर्यानुभव में व्यक्ति और वस्तु दोनो की महत्ता स्वोकार की गई है, क्योकि भ्रनुमविता के प्रभाव मे वस्तु का सौन्दयं महत्वहीन होता है और वस्तु मे सौन्दयं की शून्यता भ्रनुभवकर्ता की श्रात्मा को सन्तुष्ट नही करती 1 श्रत सौन्दर्यानुभव मे वस्तु के सौन्दयं ঈ साथ उसके ग्रनुभवकर्ता , की महत्ता भी रहती है ! इन दोनो मे प्रमुखता मानवीय हष्टिकोण की ही है । इस से मानव की महत्ता के सपिक्ष मे वस्तु-सौन्दयं को स्वीकार किया गया है। इस से दो उद्दे श्यो की सिद्धि होती है (१) आत्मपरक और वस्तुपरक दृष्टि से सौन्दयं -विवेचन की दो अलग-अलग आधार भूमियाँ प्राप्त होती है । (२) सौन्दये-बोध से उत्पन्न श्नानन्द के महत्व का प्रतिपादन होता है) यह्‌ आनन्द काव्य के सौन्दर्यानुभव से ही उत्पन्न होता है । केला का श्रानन्द भी सौन्दयेजन्य ही है 1 इस से काव्य का सौन्दर्य परक अनुशीलन उसके मूल ध्येय का ही अ्रनुशीलन है । इस अनुशीलन में विषय की एक सीमा है, उस सीमा मे रह कर ही अपना विचार व्यक्त किया गया है। प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध के नामकरण से ही विषयवस्तु की परिधि का ज्ञांव होता है । मध्यकालीन कृष्एकाव्य से अभिप्राय भक्तिकाल श्रौर रीतिकाल की कृष्ण सम्बन्धी स्वनाग्रो सेहै) इन दोनो कालौ की अनन्त रचनाओं का विवेचन करना प्रस्तुत प्रबन्ध का ध्येय नहीं है, अपितु इन कालो के प्रमुख केचियो की कृतियो का प्रवृत्ति-परक विश्लेषण ही सौन्दयं-हष्टि से किया गया है ! भक्तिकाल मे वल्लभ-सम्प्रदाय श्रौर राधावल्लभ -सम्प्रदाय के कुदं कवियो की रचनाओं को प्रमुखता दी गई है, परन्तु आवश्यकतानुसार अन्य कृष्णभक्त कवियो के उद्धरणो शआ्रादि से भी प्रस्तुत विषय की पुष्टि हो सकी है। इन्ही कवियो की रचनाओ्रों के साध्यम से सिद्धान्त पक्ष का निरूपण किया गया है। एक बार सिद्धान्त का प्रतिपादन कर लेने पर अलग-भलग अध्यायो मे भक्ति- काल और रीतिकाल का सौन्दर्य-विषयक विश्लेपण उसी आधार पर हुआ है।




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