अपभ्रंश प्रकाश | Apbhransh Prakash

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Apbhransh Prakash  by देवेन्द्र कुमार - Devendra Kumar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ ६ | अपभ्र श में स्वसामान्य प्रवृत्तियों ही अधिक दिखाई देती है , पर उत्तर- कालिक अपभ्रश में प्रांतीय रूपो का अ्रधिकाधिक ग्रहण होने लगा। अर्थात्‌ प्रांतीय प्रति स्फुट होने पर वहं देशी भाषाओं के अधिक निकट आ गया | विद्यापति ने अपनी कीरतिलता” में जिस भाषा का व्यवद्यार किया है वह प्रांतीय या प्रवों रूप लिए हुए है। कुछ विद्वान्‌ अपभ्रश के इस उत्तरकालिक रूप को अवहडा' कहने के पक्ष मे है अर्थात्‌ उनके मत से अपभ्रश और देशी भापाके बीच एक सोपान श्च्रवहट्रः का है | इसमे संदेह नहीं कि देशी भाषाओं का उदय होने के पूर्ण ग्रपभश्र श का ऐसा रूप अवश्य आया होगा जो उनके निक्र था, अतः पुराने या पृूवकालिक अ्पश्रश को अपश्रश और उत्तरकालिक को -श्रवहट्र' कदा जाय तो के हानि नहीं । पृवकालिक अपभ्रश के लिए पह नाम कही प्रयुक्त मिला भी नहीं है पर उत्तरकालिक अपकभ्र श के लिए, यट नाम आया है। 'प्राकृतपंगलम” की टीका में इस नाम का व्यवहार आर-बार हुआ है । यह अवहद्द! (तत्सम श्रपश्चष्ट) देशी भाषा के निकट है या यो कहिए कि देशी भाषा की मिलावट से साहित्यारूढ पारंपरिक अपश्र श ही अवहद्द! है। विद्यापति ने अवहड्' को मीठी देशी भापा वैः निकट लनि का प्रयास किया हे। उन्होंने जो बह लिखा है कि सक्कश बानो अहुअ् न भावदई , पाउअ रस को मम्म न जानह |




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