भट्टारक रत्नकीर्ति एवं कुमुदचन्द्र व्यक्तित्व एवं कृतित्व | Bhattarak Ratnakirti Evm Kumudachandra Vyakiatv Evm Krititv

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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लिये ही सही, भाने कीं कामना करती है तो उस समय उसकी तड़फन सहज ही में संमभः में भरा सकती हैं। रत्नकीति एवं कुमुदचन्द्र ने मेमि राजुल से सम्बन्धित कृतिया लिख कर उस युग में एक नथी परम्परा को जन्म दिया । उन्होंने नेमिनाथ का बारहमासा लिखा, नेमिताथ फांग लिखा, नेमीश्वर हमची लिखी झौर राजुल की विरह बेदना को व्यक्त करने वाले पद लिखे । लेकिन भट्टारक कुमुंदचन्धध ने नेमि राजुल के भ्रतिरिक्त और भी रचनायें निबद्ध कर हिन्दी साहित्य के भण्डार को समृद्ध बनाया । उन्होंने भरत बाहुबली छभ्द ' लिख करं पाठको के लिये एक नये युग का सूत्रपात किया । भरत-बाहुबलि छन्द बीर रस प्रधान काव्य है और उसमें भरत एवं बाहुबली दोनो की वीरता का सजीव वर्णन हुआ है । इसी तरह कुमुदचन्द्र का ऋषभ विवाहलो है । जिसमे प्रादिनाथ के विवाह का बहुत सुन्दर वर्णन दिया गया है। उसबध्युग मे ऐसी कृतियों की महती ग्रावश्यकता थी । वास्तव में इन दोनों कवियों की साहित्य सेवा के प्रति समस्त हिन्दी जगत सदा श्राभारी रहेगा । इन दोनो सन्त कवियों के समान ही उनके शिष्य प्रशिष्य थे ! जसे गुरु वैसे ही शिष्य । इन्होंने भी अपने गुरु की साहित्य रुचि को देखा, जाना और उसे झपने जीवन में उतारा । ऐसे शिष्य कवियों में भट्टारक भ्रभयचन्द्र, शुमचन्द्र, गणेश, ब्रह्म जयसागर, श्रीपाल, सुमतिसामर एवं सयमसागर के नाम विशेषत उल्लेखनीय है । इन कवियों ने अपने ग्रुराु के समान प्रन्य विषयक पद एव लचु काव्यो के निर्माण मे गहरी रुची ली । साथ में अपने गुरु के सम्बन्ध मे जो गीत लिखे वे भी सब हिन्दी साहित्य के इतिहास मे निराले हैं! वे ऐसे गीत है जिनमे इतिहास एव साहित्य दोनो का पुट है। इन गीतो में रत्नकीति, कुमुदचर्द्र, भ्रभयचनद्र, एवं शुभचन्द के बारे मे महस्वपूर्ण ऐतिहासिक सामग्री मिलती है। ये शिष्य प्रशिष्य भट्टारको के साथ रहते थे और जैसा देखते वैसा प्रपने गीतो में निबद्ध करके जनता को सुनाया करते थे | प्रस्तुत भाग में ऐसे कुछ गीतो को दिया गया है। भ्रष्टा रक्त रत्नकीति, कुमुदचन्द्र, श्रभयचन्द्र एवं शुभचन्द के सम्बन्ध में लिखे गये गीतों से पता चलता है कि उस समय इत भट्टारकों का समाज पर कितना व्यापक प्रभाव था। साथ ही समाज रचना भे उनका कितना योग रहता था| वें झ्राध्यात्मिक गुरु थे। घामिक क्रियाओं के जनक थे | वे जहा भी जाते घामिक उत्सव भ्रायोजित होने लगते प्रौर एक नये जीवने की धारा वहते लगती । मगलगीत मयि जाति तोरण भौर वन्दनेवार लगये जाते। उनके प्रवेश पर भव्य स्वागत किया जाता । भ्रौर ये जेन सन्त अपनी भ्रमृत वाणी से सभी श्रोताशो को सरोबार कर देते । सचेते सन्तो पर किस समाज को गव नहों होगा (70)




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