अभागी का स्वर्ग | Abhagi Ka Swarg

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Abhagi Ka Swarg by शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय - Sharatchandra Chattopadhyay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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तके सचरित वासना ने संस्कार की भाँतिःउसकी-दंबी हुई ष आघात पहुँचाया। इस मृत्युपथ के यात्री ने-अपनी' विवश, मुजाओं- के शय्या से बाहर बढ़ाकर हाथ भुका दिए | रसिक हेतवुद्धि के समान खडा रहा 1 -पथ्वी पर: उसकीःपदः घूलि का भी कोई प्रयोजन है, इसे भी कोई चाह सकेता है, यह: उसकी कल्पना से परे था। बिन्दो की बुआ खड़ी हुई थी, उसने कहा,.:दो बाबा, थोड़ी-सी पावो की धूलि दो। रसिक आगे बढ़ आया । जीवन में जिस स्री को उसने प्यार नहीं दिया, भोजन-वख नहीं दिया, कोई खोज-खत्रर नहीं की, मृत्यु काल में उसे केवल थोड़ी-सी पदध्रूलि देते समय वहु रो उठा ! राखालं की माँ बोली, ऐसी सती-लक्ष्मी ब्राह्मण-कायस्थों के घर में न जन्म कर हम दूलों के घर में क्‍यों जन्मी ? इस बार उसकी गति सुधार दो बेटा--कज्भाली के हाथ से अग्नि पाने के लोभ में उसने अपने प्रारा दे दिए हैं। ग्रभागी के ग्रभाग्य के देवता ने परोक्ष में बैठकर क्या सीच था, पत्ता नही, परन्तु बालक कङ्काली की छाती में यह्‌ बात जैसे तीर की भाँति विध गई । उस दिन, दिन का समय तो कट गया, पहली रात भी कट गई; परन्तु सबेरे के लिए कड्भाली की माँ और प्रतीक्षा नहीं कर सकी । कौन जाने इतनो छोटी जाति के लिए भी स्वर्ग के रथ की व्यवस्था है अथवा नहीं, अथवा अच्धेरे में पैदल चलकर ही उन्हें रवाना होना पड़ता है-परन्तु यहं समम में आगया कि रात पूरी समाप्त न होने पर ही वह इस दुनियाँ को त्याग गई । फोंपड़ी के श्रॉगन में एक बेल का पेड़ है, कहीं पे कुल्हाड़ी लाकर रसिक ने उस पर चोट की अथवा नहीं की, परन्तु जमींदार का दरवान कहीं से, दौड़ा चला श्राया और उसके गाल पर तड़ाक से एक चाँटा कस दिया; कुल्हाड़ी को छीनता हुआ बोला, बेटा यह লনা




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