प्रथमजा | Prathmaja

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ ११ ] और पैर शूद्र हैं | जिस प्रकार व्यष्टि पुरुष के मुख, बाहु आदि चारों अवयव परस्पर एक-दूसरे के पूरक होते हुए पूर्ण मानव का निर्माण करते है, उसी प्रकार समाज मे ब्राह्मण आदि चारों वर्ण एक-दूसरे के पूरके बनकर ह सम्पूर्ण समाज रूपी पुरुष का संगठन करते हैं। किसी एक के भी अभाव में समाज रूपी संस्था अधूरी रह जावगी। शरीर में उदर या उछु के पास पाचक अवयब होते है जो दो प्रकार के है--उत्पा- दक और বিলাআন্ধ (1৬91708001105 2:70 10150100208) एक का कार रस उत्पन्न करना और दूसरे कब कार्य उस रस को समान रूप से सब अंगों में वितीर्ण कर देना है | समाज पुरुष का वैश्य अग मी इन दोनों कार्यो को करता है । वैश्य धन उत्पन्न करता है और उस धन को धर्मशाला, कूप, वापी, पाठशाला आदि बनाने या दान देने में व्यय करता है, जिससे उस धन का उपयोग सारा समाज कर सके | यदि वेश्य उत्पन्न किए घन को अपने पास ही रखे, समाज को न दे, तो समाज रूपी पुरूष वैसे ही वेषम्य-जनित अशान्ति एत्र कलह के रोग में ग्रसित हकर नष्ट होजायगा जैसे वह पुरुष अस्वस्थ होकर नष्ट होबाता है, जिसका उदर भोजन को अपने ही अन्दर रखे रहे, पचाकर उसे रस रुप में अन्य अंगों तक न पहुचावे। समाज पुरुष के शूद्र अंग के भी दो कार्य हैं-शुद्धि करना और बाहर निकालना | ब्राह्मण ओर क्षत्रिय-समाज रूपी पुरुष के शरीर में फैले हुए जञान-तन्ठु-जाल (ऽलाऽलाफ 06750033 55320) और क्रिया-तन्तु- जाल*(1010772 ४005 39४८77) के समान हैं। राष्ट्र पुरुष के सज्ञठन रूपी शरीर में भो ये चारो श्रग दृष्टिगोचर होते है । प्रत्येक राष्ट को सुचारु रूप से कार्य-सचालन के लिये ( 1,८21818117८,




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