भोजपुरी के कवि और काव्य | Bhojpuri Ke Kavi Aur Kabya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ध् भोजपुरी के कवि श्रौर काव्य बदला श्र तदनुसार अभिव्यक्ति पाई। इस प्रकिया की गति में इस बात से भी विशेष बल श्राया कि हमारी भारतीय भाषाएँ एक-दूसरे से बहुत झधिक सश्चिकट हैं और कई अंशों में समरूप हैं। हमने ऊपर इस बात का भी संकेत किया है कि हमारे मध्यकालीन भक्त और सन्त कवियों ने किंसी एक भाषा के सबंधा विशुद्ध रूप में हो रचना करने की शपथ नहीं ली थी बरन श्रपनी वाणी के लिए समन्वित भाषा के ्ादश को झपनाया था। इसी कारण एक ही कवि की रचना में हमें बहुधा अन्य जनपदौीय प्रयोगों के भी रूप मिलते हैं। ऐसे मिश्रित रूपों की उपेक्ता करना भाषा भर साहित्य के विकास के इतिहास की दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता । फिर भी विस्तार-भय से लेखक के चुने हुए ऐसे नमूनों को ग्रन्थ में सम्मिलित नहीं किया जा पक्का । परन्तु लोक-वाणी और लोक-मानस के रागात्मक प्रभाव को समकने के लिए ये बड़े मजेदार और महत्वपूर्ण हैं। ऐसे कुछ उदाहरण यहाँ प्रस्तुत किये जाते हैं-- विद्यापति-- लेखक ने अपनी विधवा चाची से निम्नलिखित गौत को आधी रात में गा-गाकर रोते हुए सुना था-- बसहर घरवा के नीच दुअरिया ए ऊधो रासा मिलमिल बाती । पिया ले में सुतलों ए ऊधो रामा शँचरा डसाई। जो हम जनितों ए ऊधो रामा पिया जहूहें चोरी । रेखम के डोरिया ए ऊधो खींची बंघवा. बँघितों । रेसम. के डोरिया. ए. ऊधो . टूटि-फाटि. जे । बचन के बान्हल़॒ पियवा रामा से हो कहाँ जईहैं। डा० ग्रियर्सन ने भी रॉयल एशियाटिक सोसाइटी के जेल के नये सिरीक्ष षष्ट १८८ में इस गीत को यह प्रमाणित करने के लिए उद्धृत किया था कि विद्यापति ने भोजपुरी में भी गीत लिखे थे । इस गीत का एक दूसरा पाठ सेखक को शपनी चाचीजी से ही प्राप्त हुझा था जिसे नीचे उद्धृत किया जा रहा दै-- प्रेम के जन्इलका पिंय्रवा जीवे सरें जद ॥४॥ जवबनि डगरिया ए ऊधो रामा पिया गले चोरी । तवनि ढगरिया ए ऊधो रामा बशिया लगइबों । बगिया के ओते-झोते रामा केरा नरियर लगाई ॥ण॥ झंगना ससुरवा ए ऊधो रामा दुष्पररा मसुरवा । कंहसे बाहर होखबि रामा बाजेला नूपुरवा ॥६॥ गोढ़ के नूपूरवा रामा फाड़े बाँधि लइ्च् ों झ्रल्प जोबनवा ए ऊधो हिरदा लगइबों ॥ज॥। पात मे पनवा ए. ऊधो फर मधे नरियर तिवई सधे राधा ए उधो पुरुष मधे क्रन्हाई ॥८॥। १ इस सम्बन्ध में देखिए---. विशनाथ प्रसाद प्जभाषानदेतु ब्रजबास हीं ने अनुमानी ब्रज-भारती अखिशमारतीय ब्रलन्साहिर्द संत के ९९४३ दैं० के मंतपुरों-सधिवेशन में झध्यक्षनपद से दिया हुआ भाषण ।




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