डायरी के नीरस पृष्ट | Diary Ke Niras Prishtha

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Diary Ke Niras Prishtha by इलाचंद्र जोशी - Ilachandra Joshi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१४ डायर! क न।९९ ५४ निर्म त्रन्द-लील्ला का रस लेते थे | वे सव स्प्रतियोँ मुभे विकल करने लगीं | शायद उसका भी यही हाल था । मैं ऐसा मालूम कर्‌ रहा খা लेसे मेर पूर्व-जन्म की प्रिया युगों के बिछोह के बाद भावी जन्म में मुझे मिली है। जैसे वर्तमान जन्म से मेरा कोई संबंध नहीं हे | प्रायः एक घण्टे तक वह मेरे पास बेठी रही । फिर बौली--“अब चलती हूँ । बचें नीचे बहुत देर से मेरे इंतजार में बैठे होंगे |? बच्चे | तब मेरा अनुमान ठीक ही था | उसका मातृत्व उसकी आँखों को सरस वेदनामय छाया से स्पष्ट ऋलकता था | मेंने कहा--“उन्हें यहाँ क्‍यों नहीं लायी ? मेरे मनमें बड़ी उत्सुकता पैदा हो गयी है । मेँ स्या उन्हें खा डालता ? तुम्हारी बुद्धि क्या अब तक वैसी ही पत्थर बनी है ?” मुझे अभिमानवश बेतरह गुस्सा श्रा रहा था | “आज देर हा गयी है | एक दिन फिर कभी बच्चों को लेकर आजऊँगी भेया |”? कहकर वह धीरे-धीरे वापस चली जाती है | जाओ ! जाओ : हे नारी | इस स्वार्थभय संसार में मैं कमी यह प्रागा नहीं कर सकता किं ठुम हम दोनों के बात्यकाल के स्नेह के नाते से मेरे जटिल च्रमय हृदय की वेदना को समभने की वेष्टा कयेगी | मेरा यह हृदय एक विशेष प्रकार के आग्नेयगिरि के समान प्रकट में शांत दिखाई देता है, पर भीतर श्रन्तराग्नि से अत्यन्त क्षुब्ध और प्रपीड़ित है । अपने शांत-हृदय पति और बाल-बच्चों को लेकर तुम स्निग्ध गाह॑स्थ्य जीवन की मनोमोहिनी साया से मंत्रमुग्ध हो | अपने श्रन्त:करण के मंस्कार-वश मेरे हृदय की ज्वलंत आँच के पास फकना भी न चाहोगी यह तो जानी हुई बात है | उसके बाल-बच्चों के प्रति मेरे छुदय में जो एक लोभ-प्रद मोह का भाव कण मे उग्र ह गया था, वह पल मे उसी तरह विलीन भी हो




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