अनुसंधान के मूलतत्त्व | Anusandhan Ke Mooltatva

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Anusandhan Ke Mooltatva by विश्वनाथ प्रसाद - Vishvanath Prasad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रनृसधान के सिद्धान्त १५ पूर्वाजित नान का परीक्षण গা सचालन करते हुए उसके श्रग्निम विकास के लिए वू प्रयत्तवशोल रहता है। इन्ही कुछ श्राघारभूति बातो से वैज्ञानिक दृष्टि की रचना होती है ग्रौर इनके आधार पर प्राप्त निष्कर्प निश्चय ही प्रामाणिक होते हं । प्रामाणिकता कै लिए श्रनुसवान में हम कभी-कभी ऐसी प्रवुत्तियों में भी फंस जाते हैँ जो वैज्ञानिक दृष्टि से अनुचित कही जायेंगी। स्वत असिद्ध या प्रामाणिक उद्धारंणो का श्रवलम्बन दसी बात का उदाहरण है। कुछ विद्यार्थी दुनियाँ-भर के उद्धरण बदोर लेते हे भौर कुद ऐसे लोगों के उद्धरण भी देने लगते हैं जिनका ज्ञान बहुत कम लोगो को होगा। ऐसे उद्धरण-ग्रिय अनुसधित्सु किसी भी ऐसी कृति को नही छोडते जो कही, किसी प्रकार उन्हें दिख जाय और उसका तमनिक भी सबब उनके कार्य से हो । परन्तु श्रप्रामाणिक पृस्तको प्रौर लेखको का उल्लेख प्रामाणिकता मे योग नही न | যী आवश्यकत्तानसार उद्धरण देना वृरा नहीं है | उद्धरण बीच में भी दिए जाते हें, निवन्ध के नीचे पाद-टिप्पणियों में भी दिये जाते हैं श्ौर निबन्ध के अन्त में भी दिये जाते है । परन्तु जो कथन श्रभी स्वत साध्य हो अथवा जो लेखक अभी स्वत प्रमाण रूप में गृहीत नही हुए हों उनको प्रमाण के रूप में उद्धृत करके कोई विशेष प्रभाव नही उत्पन्न किया जा सकता | प्रमाण देने में उदेश्य होता है कि हमतने जो श्रनृसवान क्रिया ह গাঁ जिस নাল की खोज की है वह दूसरे लोगो के द्वारा भी पुष्ट होती है, इसी दृष्टि से प्रमाण दियेजा सकते हैँ, यह दिखाने के लिए नही कि हमने फ्या-क्या पढा है। वस्तुत घोष-प्रवन्धो मे देखा यह जाता है कि विद्यार्थी ने स्वयं क्या काम किया है। यदि उसके निबन्ध का सवध प्रयोगशाला में किए हुए कार्य से है तो उसकी सफलता इस बात पर निर्मर करती है कि उसके निष्कपं उसके स्वयकृत प्रयोगो पर कहां तक तिभर है। भौर यदि उसका निबन्ध तथ्यपरक है ती इस वात का विचार किया जाता है कि उसमें श्रनुसधित्सु की श्रपनी स्वतत्र देन क्‍या है । न्यायश्ञास्त्र मं श्रनूमान को भी प्रमाण का एक सावन माना गया है, परन्तु धनमान के विपयमेंश्रौर सावधानी से काम लेना पडता । श्रनृमान की परिपाटी में जाने पर उसके साधनों भ्रौर श्रावारों के ठोसपन की जाँच कर लेनी चाहिए, नही तो श्रच्छा है कि कोरे श्रनृमान के दारा हम किसी सत्य का पोषण न करे, प्रयोग श्रौर भ्रवेक्षण इन्दी दोनो को श्रपना प्रधान साधन बनाएं । श्रवेक्षण की श्रनेक पद्धतियाँ है । इनमे तुलनात्मक पद्धति भी एक उपयोगी पद्धति है । तथ्यो का सकलन, उनका वर्गीकरण भर इस वर्गीकरण के क्रम में बीच-बीच में जो दुलनीय हो उनकी भ्रावश्यक तुलनाएं ये तुलनात्मक पद्धति की प्रमुख विशेषताएं हे । अनुसधान के विषय में एक भौर प्रश्न हमारे सामने खडा होता है पूर्णता भौर भपूर्णता का । में कह चुका हूँ कि श्रनूसघान की वैज्ञानिक दृष्टि का ही यह तकाजा है कि श्रनुसघायक इस बात्त में कट्टरता न प्रदर्शित करे कि जो कुछ वह कह रहा है बस वही श्रन्तिम श्रौर परिपणे सत्य है 1 वह्‌ वरावर इस बात का विद्वास करे कि फिर श्रागे भी उस विषय को बढाया जा सकता है । और श्रधिक विचार, भ्रधिकत साधना करके वह स्व्रय भी उपलब्ध ज्ञान की परिष्ति को बढा सकता है तथा दूसरे भी उसके विपय के कई पहलुओ को लेकर उसे




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