सम्यक्त्वपराक्रम [द्वितीय भाग] | Samyaktva Prakram [Part 2]
श्रेणी : धार्मिक / Religious
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
9 MB
कुल पष्ठ :
306
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)पाचवां बोल-& `
प्रकार गुरु के समक्ष आलोचना करके सब बाते-सरलतापूर्वक,,
साफ-सांफ कह देती चाहिए। आलोचना करने मे किसी प्रकार:
का क्लेश नही होना चाहिए । कपट करके दूसरे की आँखों
मे घूर कौकी जा सकती है, परन्तु क्या परमात्मा को भी
घोखा दिया जा सकन है? नही । परमात्मा को घोखा देनं
की असफल चेष्टा करना अपने आप को कष्ट मे डालने के:
समान है । अत आलोचना में सरलता और निष्कपटता',
रखना आवश्यक है । शास्त्र मे भी कहा है -
माई सिच्छदिद्ी, श्रमाई सम्मविद्यीो। ` ^
अर्थात्-- जहाँ कपट हँ वहाँ मि््यत्व ই श्रौर जहाः
सरलता हैं वहाँ सम्यग्दशन है । लोग सम्यग्दर्शन चाहते हैं-
सगर सरलता से दूर रहना चाहते हैं। यह तो वही बात
हुई कि 'रोपा-पेड बवूल का आम कहा से होय । एक भक्त
ने कहा है --
, मन को मतौ एक ही भांति ।
चोहत मुनि मन अगम सुकृत फल मनसा अथ न अधघाति।।
अर्थात् - सभी का मन उत्तम फल कीः आशा रखता
ह । जिस उत्तम फल की कल्पना साघु भी नही कर सकते,
वैसा उत्तम फल तो चाहिए मगर कायं वैसा नही चाहिए.+
तीर्थकर गोत्र का बघ होना, शास्व मे बडे से बडाफलमाना
गया ह । अग्र कोई कहे कि यह् फल आपको मिलेगा तोः
क्या आपको प्रसन्नता नहीं होगी ?, मगर क्या यह फल बाजार
मे' बिकता है जो खरीद कर लया जा सके ? मन तो पाप
से बचता नही है, फिर इत्तना महान् फल कैसे मिल सकता
है ? अतएव भहान् फल को प्राप्ति के लिए हृदय मे' सरलता
वारण करो ओर अपने अपराधो को गुरु के समक्ष सरलता-
ष
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