सम्यक्त्वपराक्रम [द्वितीय भाग] | Samyaktva Prakram [Part 2]

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पाचवां बोल-& ` प्रकार गुरु के समक्ष आलोचना करके सब बाते-सरलतापूर्वक,, साफ-सांफ कह देती चाहिए। आलोचना करने मे किसी प्रकार: का क्लेश नही होना चाहिए । कपट करके दूसरे की आँखों मे घूर कौकी जा सकती है, परन्तु क्या परमात्मा को भी घोखा दिया जा सकन है? नही । परमात्मा को घोखा देनं की असफल चेष्टा करना अपने आप को कष्ट मे डालने के: समान है । अत आलोचना में सरलता और निष्कपटता', रखना आवश्यक है । शास्त्र मे भी कहा है - माई सिच्छदिद्ी, श्रमाई सम्मविद्यीो। ` ^ अर्थात्‌-- जहाँ कपट हँ वहाँ मि््यत्व ই श्रौर जहाः सरलता हैं वहाँ सम्यग्दशन है । लोग सम्यग्दर्शन चाहते हैं- सगर सरलता से दूर रहना चाहते हैं। यह तो वही बात हुई कि 'रोपा-पेड बवूल का आम कहा से होय । एक भक्त ने कहा है -- , मन को मतौ एक ही भांति । चोहत मुनि मन अगम सुकृत फल मनसा अथ न अधघाति।। अर्थात्‌ - सभी का मन उत्तम फल कीः आशा रखता ह । जिस उत्तम फल की कल्पना साघु भी नही कर सकते, वैसा उत्तम फल तो चाहिए मगर कायं वैसा नही चाहिए.+ तीर्थकर गोत्र का बघ होना, शास्व मे बडे से बडाफलमाना गया ह । अग्र कोई कहे कि यह्‌ फल आपको मिलेगा तोः क्या आपको प्रसन्नता नहीं होगी ?, मगर क्या यह फल बाजार मे' बिकता है जो खरीद कर लया जा सके ? मन तो पाप से बचता नही है, फिर इत्तना महान्‌ फल कैसे मिल सकता है ? अतएव भहान्‌ फल को प्राप्ति के लिए हृदय मे' सरलता वारण करो ओर अपने अपराधो को गुरु के समक्ष सरलता- ष




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