महाश्रमण सुनें, उनकी परम्पराएँ सुनें | Mhasrmana Sune Unki Prmprayan sune

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अस्त-व्यस्त परिधानोंमें बेसुध पद्दी थीं। उनके रूपका तीखापत भी जैसे उनकी बन्द आँखोंमें ही बन्द हो गया था। असावधानीसे अनाबुत अंग सिद्धार्थके मनमें जुगृप्सा पैदा कर रहे थे। उस समय उनकी स्थिति गवालसे घिरे कमल तालमें उगे एकाको कमछ-सी थी | कुमारने आकाशको सम्बोधित करते हुए कहा था, ये रूपके बन्धचन कितने घृणित हैं। ये मायाके बन्धन कितने भिथ्या हैं। कछ ये तरुणियाँ जब वद्धा हो जायेंगी, तब इनका रूप कहाँ होगा, तव क्‍या वह दपण भी जिसमें ये नित्य अपनी तरुणाई निहारती रही हैं, यह विश्वास दिला सकेगा कि कभी वे सुन्दरी थीं, युवा थीं। इस अचिर सुख, अचिर रूप, अचिर योवन और আন্দিহ বসল হেলা कौन-सा आकर्षण ह जो मनुष्यकी बृद्धि निरन्तर सोयी रहती हूं एक बार सिद्धार्थके मनमें आया कि उन सुन्दरियोंकों जगाकर उनका उद्बोधन करें और उन्हें दतायें कि इस अचिर्‌ सुखके पीछे दोड़ती रहोगी तो बराबर गर्भका रौरव भोगोगी । वार-बार कामतृपामें प्रमत्त रहोगी । वार-बार्‌ कालको अपने रूप यौव्रनका हृविष्य देकर विगलित अंगोंवाला जरासे जर्जर जीवन जियोगी । उठो, और उस जीवनके साधनमें लछगो जो समस्त अचिरताओंस अतीत है । जो एक मात्र सत्य है । पर यह सत्य स्वयं सिद्धाथके मनम तक-वितकका जाट वुनता रट बस वे चुप ही रहे । दूसरे क्षण वहाँ रुके भी नहीं । अपने चारो ओर श्ुखसा-तुल्य पड़ीं उन सुन्दरियोंके अंगों-वस्त्रोंकी सावधानीसे परोंके नीचे आनेसे बचाते हुए कक्षसे बाहर चले आये । कक्षसे बाहर आते ही उन्होंने देखा -वेशाखी पशणिमाका सोलह कलाओवाला चन्द्र अमृत घट-सा লীক্টি अम्बरपर सन्तरण कर रहा था जिससे विकीर्ण होती हुई रजत धवल किरणें पृथ्वीका अभिषेक कर रही थीं । उस चन्द्रिका-स्नात एकान्त यान्त राजत्रिमें कुछ दिव्य-सा था। कुमार अबतक उस ॒सुधापिण्डको देखते रहं । कितनी ही देर्‌ तकं वं अपना भी उनकी परम्पराएँ सुने !! १५९




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