दश कोण | Dashkon

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Dashkon by कालिदास कपूर - Kalidas Kapoor

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मेरी मेज की दराज़ में श्रभी तक झ्रास्ट्रिया की सरकार से प्राप्त पास- पोटं सुरक्षित है । उपकी मेली जिह्व पर श्रास्ट्रिया का गरड़ राज्य- चिह्न कुछ धु घला पड़ गया है। भीतर लिखा है-- जन्मभूमि : बुकोविना সান্দ का रिजका नामक ग्राम; जन्मतिथि : १५ साचे, १८८८ । उस समय रिजका का रपेथिया की पर्ंतश्रेणी के मध्य एक छोटा-सा गाँव था, हा ने सड़कें थीं, न हकूल था, न कोई रेलवे स्टेशन ही था। यदि कोई चिट्ठी डाक में छोड़ती हो या एक जोड़ी जूता ही खरीदना हो, तो घोड़ा-गाड़ी से चार घण्टे के सफर के पश्चात्‌ ही कोई कस्बा मिलता था। परन्तु रिज़का के निवासियों को शायद ही कभी कोई चिट्ठी भेजने की जरूरत पड़ती हो; झौर जूतों की कफ़ियत यह थी कि गरभियों में तो हम नंगे पैर घृगते, भ्रौर जाड़ों में छोटे बड़ों की उतरन पहनते । गाँव में फोंपड़ियों के श्रतिरिवत सात ही आठ पक्के घर थे श्रौर इनम हमारे परिवार का धर सबसे श्रच्छा था। तो भी वह एक ही खण्ड का था और उप्तमें कोई तहखाना न था । जब शरद में वर्षा होती या वसन्‍्त में बरफः पिघलती तो हमारे कमरों में काईं, कंबाड़ श्रौर प्रमंख्य काले कीड़े लिये जल भर जाता और बहिया उतरने पर भी कमरों जल भरा रहता । बिस्तरों की जगह हमारे लिए भूसा भरे তাত ঈ মহ थे । हमारे कस्बे में सुख का अभाव भ्रवश्य था, परन्तु उसकी स्थिति बहुत भ्रच्छो थी। चारों शोर भीलों तक पहाड़ों मौर घाटियों को चीर के धने, ऊंचे, हरे भ्ौर सुन्दर जंगल ढके हुए थे। मेरे पिता लकड़ी चीरते के एक बड़े कारखाने के संचालक थे, जिसमें पाँच हजार मजदूर लगे हुए थे । इनमें अधिकांश भ्रास-पास के गाँवों के निवासी थे । परन्तु इनमें से कुछ निकट ही डंडों पर सघे खेमों में रहते थे, जो वहाँ फौलीबस' कहे जाते ये । सप्ताह में छः दिन और दिन के चौबीस घण्टे काम चालू रहता । यह सब काम दो पालियों में ही होता, एक दिन की भ्रौर दूसरी रात की ।




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