विश्वप्रपंच भाग - 2 | Vishvaprapanch Bhag - 2

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Vishvaprapanch Bhag - 2  by रामचन्द्र शुक्ल - Ramchandar Shukla

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ११) से सभ्य देश के करोड़ों मनुष्य इस अंधविश्वास को अपनी: হল निधि! समझते हैं | इसे वे कदापि छोड़ना नदी चादते । पर में इस बात को हृढ्ता के साथ कहता हूँ कि आत्मा के अमरत्व की भावना सोह के अतिरिक्त और कुछ नदी । इसे त्यागने से मनुष्य जाति की हानि कुछ न्दी, ओर राभ बहुत है । आत्मा को अमर मानने की अबलू वासना का कारण क्या है ? क्‍यों छोगों की यह इच्छा रहती है कि आत्मा अमर सिद्ध हो ? इसके मुख्य कारण दो हैं--एक तो यह आशा कि परछोक मे अधिक सुख मिलेगा, दूसरी यह आशा कि मृत्यु के कारण जिन प्रिय जनों का वियोग हुआ है वे फिर देखने को मिलेगे । इस संसार मे बहुत सी भराइयाँ हम दूसरों के साथ करते है जिनके वदङे की काई आशा यहाँ नहीं होती । अतः हम एक ऐसे अनत जीवन की वाञ्छा करते हैं. जिसमे सब बदले पूरे हो जाये और सदा सुख भोर शान्ति वनी रदे । भिन्न भिन्न जातियो में स्वर की भावना उनकी सुख की भावना के असार है । ससस्मानो के विदिश्त में सुन्दर छायादार वग्रीचे है, मीठे पानी के चमे, जारी हैं, हुर और गिरूमा सेवा के लिए हैं | ईसाइयो का स्वगे भी सुखसंगीतपूर्ण है, अमेरिका के आदिम निवासियों के गवर्ग में शिकार खेलने के लिए बड़े बड़े मेदान हैं जिनमे. असंख्य भैंसे और भालू फिरा करते है । ध्यान देने की बात यह है कि छोग स्वगं मे उन्दी सव सुखो को भोगने की कामना, करते हैं जिन्हें वे यहाँ ,अपनी इन्द्रियों के द्वारा भोगते हैं । वे




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