अ डिस्क्रिप्टिव कैटेलॉग ऑफ़ मनुस्क्रिप्ट्स इन भट्टार्कीय ग्रन्थ भण्डार, नागपुर | A Descriptive Catalogue Of Manuscripts in Bhattarkiya Granth Bhandar, Nagpur

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( > ) অন্স वे लाइने बनाने के लिए जुजवल का प्रथोग किया जाता था । जो लोहे के तरिमदे के श्राकार की. होती थी । श्राजकल के होल्डर की नीब इसी का विकसित रूप प्रतीत होती दै 1 कलमों के घिस जाते पर उसे चाकू से छील कर पतला कर लिया जाता था, वथा बीच में से एक खड़ा चीरा कर द्विया जाता था | जिससे श्रावश्यकतानुसार स्याही नीचे उतरती रहती थी । लेखनियों के शुभाद्युभ, कई प्रकार के ग्रुण-दोपों को बताने वाले अनेक श्लोक पाए जाते हैं । जिसमें उनकी लम्बाई, रग, गांठ आदि से ब्राह्मगादि वर्णा, आयु, बन, सन्तान हानि, वृद्धि श्रादि के फलाफल लिखे हैँ । उनकी परीक्षा पद्धति ताड़पत्रीय श्रुग की पुस्तकों से चली आरा रही है । रत्न परीक्षा में रत्नों के श्वेत, पीत, लाल और काले रंग ब्राह्मण, क्षत्रिय, बैप्य और शूद्र की भांति लेखनी के भी वर्ण समकना चाहिए। इसका किस प्रकार उपयोग करना, इसका पुराना विधान तत्कालीन विश्वास व प्रथाओं पर प्रकाश डालता है |? प्रकार--चित्रपट, यन्त्र श्रादि में गोल श्राकृतियाँ करने के लिए एक लोहे का प्रकार होता था । यह प्रकार जिस प्रकार की छोटी-मोटी गोल आ्राक्ृति बनानी हो उस प्रमाण में छोटा-बड़ा बनाया जाता था । श्राज भी यह सारवाड बर्गस्ह में बताया जाता है। आ्राजकल इसके स्थान में कम्पास भी काम में लाया जाता है श्रोलिपा, उसको बनावट श्रोर उत्पतक्ति--प्रात्रीन हस्तलिखित प्रुस्तकी को एकबार सीबी लाइन में लिखे हुए देखने से मन में यह प्रएन उठ्ता है, कि यह लेख सीधी पंक्ति में किस प्रकार लिखा गया होगा ? इस शका का उत्तर यह ओ्रोलिया देती है । ओजिया को मारवाड़ी में लदीग्रावो फाटीक के नाम से जानते हैं। लेकिन इसका वास्तविक उत्पत्ति था अर्थ क्या है ? यह समझ में नहीं बाता है । इसका प्राचीन नाम झोलियु मिलता है। ओलियु शब्द संस्कृत গালি 1. ब्राह्मणी श्वेतवर्णा वे, रक्तवर्णा च क्षत्रिगी 1 वेम्यती पीतवर्णा थे, श्रसुरीश्यामलखिनी ॥2॥ ध्वेते मुखं विजानीयात्‌, रक्ते दरिद्रता भव्रेत । पीते च पृप्कलालदमीः,श्रमु री क्षयक्रारिशी ॥२॥ নিলা द्रत पुत्रमवोमृध्वी हरते यनम्‌ । স্বাদ चहरते विया, दक्षिरान्नििनी खित्रेत्‌ ॥३॥ भ्रग्रग्नन्वि: हरेदायुमंध्यम्रन्यितरेदनस । गप्टब्रन्थिईरेतू, सर्व, नि्नन्धिलेंखिनी लिखेतू ॥४॥ नवांगरुलमिता श्रेप्ठा, अस्टो वा मद्वि बराव्रिका। लेखिनी लेखग्रेन्तित्यं, बनधान्यसमागम: 119॥ प्रष्टॉयुलप्रमागोन, लेखिनी युष्रदायिनी । हीनाय हीसकर्म स्यादबिकस्याबनिकर फलम्‌ ॥2॥ ध्राथग्रन्विडरेटायूसंव्यप्रन्यिट्रेरेद्धनम्‌ । प्रस्यग्रत्थिदरस सौस्य, सिम्न॑स्थि् खिी शुभा ॥2॥




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