समयसार प्रवचन भाग - 3 | Samayasar Pravachan Bhag - 3

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Samayasar Pravachan Bhag - 3 by कानजी स्वामी - Kanji Swami

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जीवाजीवाधिकार : गाथा-१४ [ও चाहते है, जो वर्तमान विकल्प है उसका ह्याग करने--नाश करनेकी इच्छा रखते हैं | सम्पकूदशन होनेके पश्चात्‌ श्रावकके बारह त ओर सुनके पंच- मैत्रत--जे सब्र पुण्य परिणाम हैं, उनके पीछे अकषायभावक्री स्थिरता है वह निश्चयचारित्र है। ज्ञानी समसते दै कि मेरे पुरुषार्थक्री मदतासे पुण्य-पापकी वृत्तियाँ सुम होती है वह भी मेश खरूप नहीं है, तत्र फिर शरीरादि तो ककं से मेरेमें होंगे? जिसने ऐसा जान लिया कि यह मै नहीं हू, वही जानकर स्थिर होता है ? दूसरा कोई त्याग करनेवाला नहीं है---ऐसा जहाँ भान हो, पश्चात्‌ जो बरत का शुम विकल्प उठा वह व्यवहार प्रत्याह्यान है और स्वभाव में स्थिर रोना वह परमाथ त्रत है। ज्ञान ने यह जाना कि-शुभाशुभ की दृत्ति मी विकार है, वह मलिन है, वह मे नष ह इसप्रकार चामं निश्चय करके प्रथम सम्यकूदशन हुआ, दशेन होने के पश्चात्‌ प्रत्याह्यानक्रे समय वीचमें ज्ञान क्या कार्यं कएता है उसकी संघि ली है क्नि-स्वरूप की जो अविकारी निर्विकल्प स्थिरता है सो हूँ-ऐसा जानकर शुभवृत्ति उठी वह मै नहीं हूँ-ऐसी वीचमें ज्ञानकी संधि की हे। अकेले चैतन्य स्वभाव में सम्यग्दृष्टि जीव की दृष्टि है कि जो भाव ज्ञात होता है उसका भै ज्ञाता हूँ | राग-द्वेषका त्याग करूँ, विकारको छोड़ूँ,-- ऐसे जो भाव हैं वे मी उपाधि मात्र हैं,-ऐसा ज्ञानी सममते हैं। मँ परा ज्ञाता हू, किन्तु उस्म एकाकार होने वाला नहीं हँ-ऐसा निश्चय करके प्रत्या्यानके समय राग-द्वेष को छोड़ँ-ऐसा भाव भी शुभ विकल्प है, उपाधिमात्र है | राग पर्याय को छोड़ दूँ--ऐसा उपाधिभाव स्वभाव में नहीं है | मै निर्विकारी शुद्ध चिदानद स्वरूप हूँ, ऐसा भान करके उसमें स्थिर होने




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