हस्तलिखित हिन्दी ग्रन्थों का 17 वां त्रैवार्षिक विवरण | Hastalikhit Hindi Granthon Ka 17 wan Traivarshik Vivaran

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Hastalikhit Hindi Granthon Ka 17 wan Traivarshik Vivaran by विद्याभूषण मिश्र - Vidhyabhushan Mishra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ২০ ) इति श्री सुदामा चरित लिष्यो छै मिति मगसिर सुदी १३ सं० १७३१ জিও ॥ : दोहा--चतुर्वेद माथुर बिदित मधुर मधुपुरी धाम । सुकबिन को सेवक सदा करी राम कविनास ॥ चरित सुदामा को रच्यों हो निज मति अनुसार । भूछ चूक होने कछू लीज्यों सुकवि सुधार ॥ अत; इससे अनुमान होतां है कि यह लिपि-काछ ही कहीं रचना काल न हो । दोहे के अनुसार रचयिता साथुर चतुर्वेदी और मथुरा के निवासी थे । . -१०--कुमुटीपाव--प्रस्तुत शोध के अनुसार ये 'योगोभ्यास सुद्गा नामक एक अंथ के रचयिता हैं । इसमें छः पटछ ( अध्याय ) हैं। चौथे एटछ से आरंभ होने के कारण यह अपूर्ण है । इसमें हठयोग विषयान्तंगंत षट्‌ चक्र, पंच मुद्दा ओर चोरासी आसनों का वर्णन विराद पुराण के आधार पर किया गयाहैः- इति भी महादेवे पार्वती संवादे वरैरारपुराणे योग सास्रे योगाभ्यास चतुर्थोपटरूः इसका रचना कार तो ज्ञात नहींहं, क्षिन्तु किपि-कारु संवत्‌ १८६७ बि० सन्‌ १८४० है ( | | | ` रचना संस्कृत मिश्रित प्राचीन हिन्दी में है । संस्कृत का रूप अत्यन्तं विक्त हे। हो सकता है कि यह काय लिपिकर्ता का हो । हिन्दी का प्रयोग संस्कृत के साथ-साथ किया गया है :- (अ) अथ षद्‌ चक्र के नाम प्रवक्षामी । (आ) सवं चक्र मेर प्रमाण प्रथमे आधार चक्र गुदां হানি ভর্তি অন্তত कमर पद्म रक्त वणं प्रभा कमल मध्ये श्री गनेस देवता विद्या गुणं सिद्धि बुधि सक्ति चत्वार प्रपर (१अषर) वंसंषं सं अजपा संख्या षट्‌ सत स्वासा ६०० प्रवर्तते इति आधार चक्र जाप प्रमान बोलीये आधार चक्र पर स्वाधिष्टान चक्रं छिग स्थाने वक्षं । . (ई ) अजपां जपंती महासुनि इति ब्रह्म चक्र जाप प्रमान बोलीये ब्रह्म चक्र ऊपर ` নু ক্ষ আঁ মক स्थाने बसें इकईस ,ब्रह्मांड बोलीयें असंष्या दुछ कमरू अनतं सूर्यपति कासं भ्रभा कमर मध्ये श्री अचंत्यनाथ देवता अव्यसक्त सक्ति पमं सन्य मर्गे इति रुद्ध चक्र जाप भ्रमन बोछीये इकईस बह्मांड ते परम सुन्य स्थान वसे परम सून्य स्थान अपर . डंपर जे न विनसे न आवै न जाई योग योगेंद्र हे समाई सुनो देवी पार्वती इस्वर कथित महनज्ञानं ` | रचयिता कुमुटीपाव का केवल उसके नाम के अतिरिक्त विशेष परिचय प्राप्त नहीं .. होता | यह नाम अवश्य ही सिद्धों के नाम के साथ साम्य रखता है जैसे सरहपा, लूहिपा आदि | इन्हीं चौरासी सिद्धो के अन्तगंत एक कुमरिपा मी ह । सम्भवतः यही कुमरिपा भस्तुत्त भरंथकार कुमुटीपाव हैं। लिपिकारों के द्वारा 'कुमरिपा! का 'कुमुटीपाव! लिखा আলা জর্জ नहीं । यदि रचयिता वस्तुतः उक्त प्राचीन सिद्धों में से हैं तो रचना व भ साहित्यिक दृष्टि से अतीव मूस्यवान होगी भ




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