प्रहलाद | Prahlad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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गुप्त जी द्विवेदी जी को आच्षाये देव' कहकर पुकारते थे । राष्ट्रीय आन्दोलन और जन-जागरण के काम में वह गाँधी जी से प्रभावित थे । २३ नवम्बर १६२६ को गाँधी जी चिरगाँव मे उनके अतिथि बने थे। गाँधी जी के प्रति उनकी अनम्य श्रद्धा इन पक्तियों मे मुखर हुई है - सत महात्मा हो तुम जन के, बापू हो हम दीनो के, दलितो कै अभीष्ट वरदाता, आश्रय हो गतिहीनो के। आयं अजात-शत्रूता की उस परम्परा के स्वत प्रमाण, सदय बधु तुम विरोधियो के, निर्भय स्वजन-अधीनो के । अप्रैल १६४१ मे वह राजबदी बनाए गए । उनकी रिहाई १४ नवम्बर १६४१ को हुई | गाँधी जी ने इस पर कहा था कि कविता आज उनकी कलम से नहीं निकलतो है वरन्‌ उनके सूत के तारों से निकलती है। गुप्त जी की राष्ट्रीय चेतना इतनी प्रबल रही कि जब उनका नाम साहित्य सम्मेलन के सभापति पद के लिए प्रस्तुत हुआ तो उन्होने अपना नाम वापिस लेते हुए राजेन्द्र बाबू के नाम का प्रस्ताव किया। स्वतत्रता के बाद गुप्त जी राज्यसभा मे आ गए। १६५४ मे डा० राजेन्द्रप्रसाद जी ने उन्हे 'पद्मभूषण' से सम्मानित किया। १६६३ में 'सरस्वती' के हीरक जयती समारोह की अध्यक्षता गुप्त जी ने की। राज्यसभा से अवकाश ग्रहण कर आप चिरगाँव आ गए तथा १२ दिसम्बर १६६४ को आपने साकेतवास के लिए महाप्रस्थान किया । हिन्दी के इस लोकतायक कवि को हमारे असख्य प्रणाम । ( ६ )




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