भारतीय कविता | Bhartiyea Kavita

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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असमिया ५ दलाल मेरे व्यग्र अधकार के वरंग-शीषे में यह कामनाएँ उत्तुग एकत्रित हैं। आते है जाते है दलदल मे झुड-झुड मे बहत एडी चीते, सिह ओर मेडिये । मेनका की स्तन-रेखा रजनी के विरस गीत मे हिम होकर उडकर आती है- कहती है माया नगरी की बातें जिसकी सडी इई बस्ती मे नव जन्म का श्रूण बाते करता है हमारे विश्वास ओर प्रेम ओर जन्म-गृयु की । झुड-झुड टिड्टी आती है। आज, कल, आने वाले कल के समय के सागर मे क्लांन शान्त दिषु की तरह । उसके लिए मजा की वेदना ओर क्यो जीवन की दलील मे निर्बोध स्वाक्षर है ओर र्त-मास का क्रय-विक्रय है । उर्वशी की नम्न देह मे जीर्ण-शी्ण चुबनो का स्प है । दरवाजे के सामने स्टीट-सिगर का मोग-विजडित कठ । मूढता का, रिक्तता का, वचना का, निश्चेतन करुणा कु, अम्र-स्तम्भ नगरी का टूटे हुए आइने का झुड सूरज की धूप मे जलता है। क्युटीकुरा रजनीगधा का एकत्र वर्षा शीत बनता है, गोधूलि मे रात मे मृत शाव मे अलोपचार्‌ दै | नामहीन अस्यात वासना है । विकल्प, विकटप कहो है -- यही उसका आखिरी रोदन दै । दिनेश गोस्वामी




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