नूरजहाँ | Nuurajahaan

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Nuurajahaan by विश्वनाथ प्रसाद मिश्र - Vishwanath Prasad Mishra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पहला सगे मनुष्य को उसकी गम्भीरता खा ले यदि वह कभो कुछ समय निकाल कर थोड़ा हँस न ले। इस बात की गुरुता मनुष्य ने आज नहीं हज़ारों वर्ष पूषे ही समझ ली थी ओर इसी उद्देश्य-सिद्धि के निमित्त बहुत सो संस्थाएँ रच डालीं । इसी हेतु भारतीय समाज-शास्त्री ने हँसतो होली को संवारा--वह होली जिस रोज़ गम्भीर मुद्रावाला ठाकुर जी का अहर्निश पुजारों मुस्करा कर उनके भी चमत्कृत गाल गुलाल से गुलाबी कर देता है, जब प्रत्येक वृद्ध को अपनी जरा पर अविश्वास-सा हो आता है और प्रत्येक वृद्धा अपने रोम रोम में अल्हड़पन भरतो हे, जब दीवाना युवक डफ और फाण के नशे में प्रत्येक युवती में राधा, ओर नशोली तरुणी प्रत्येक युवा में कन्हैया की प्रतिष्ठा करती है यदह केवल अपना ही नहीं हे। मे डे ( ४७४ 1089 ) के रोज़ किसो अंग्रेज्ञ को देखो--क््या मन्त्रों और क्या मजूर-सब पुष्पचयन और हास्य-क्रीड़ा में विभोर, बावरे बने फिरते हैं। नोरोज्ञ के अवसर पर ईरानी मुसलमान को हराम शराब हलाल हो जाती है | सुवालित प्यालों की मादकता क्या देती हे ? एक काल्पनिक भूला जिस पर तेहरान- निवास साक्रो के साथ लम्बे पेग मारना आरम्भ करता है, अलबुर्ज के भूले भरने तक नदीं पाते । किसी हिन्दू से पृष्टो उस पर केसी बीती है जब रँगी होली के रोज्ञ उसकी प्रेयसी मुंह लटका लेती है। सारा वेभव उस अंग्रेज़ का लुप्त हो जाता है जिसकी प्रिया उसे मे डे को अपनी बाहों में नहीं भर लेती । फिर यहाँ तो हुस्न-परस्त ईरानी और उस पर भी गुमराह, विलासो अमीरज़ादा ! रज्लित नोरोज़ में घुन्दरी बीबी के चन्द्रवदन रूपी स्वच्छु-गगन पर चिन्ता के धुंधले बादल देखकर सह- द्य गयास श्यां न तिलमिला उदे । उसके हृदय की धड़कन उसका सीना क्यो न फुला दे । सारा तेहरान द्वी क्‍यों सारा ईरान जहाँ रंग में रँगा खुशी में नाच रहा हो वहाँ ग़यास की बीबो का रज्ञ उसकी बेचेनी का




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