श्रीमद राजचन्द्र वचनामृत | Shrimad Rajachandra Vachanamrit
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
54 MB
कुल पष्ठ :
968
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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সার यक प्रन 1 द
মীন হল ४५१ | ५४३ धर्म, अधर्मं आदिविषयक ४६७
६९६ বি ॥ ४५२ | ५४४ आत्मार्थकी चर्चाका श्रवण ४६७
५ देह ভা রা দ্য ४५२ | ५४५ रत्यसबधी उपदेशका खार ४६७०९
९४ छूटनम हष विषाद योग्य नहीं ४५२ | #५४६ एवभूत दृष्टिसे ऋजुवृन्न स्थिति कर ५६९
सभाव ४५३ | +५४७ में निजत्वरूप हूँ ४६९
५१८ जानीके सार्गके आशयको उपदेश ५४८ “ देखत भूली टक्े ” ४७०
करनेवाले वाक्य ४५३२-४ | ५४९ आत्मा असंग ह त
है १९ शानी पुरुष ४५५ | ५५० आतक्षप्राप्तिकी सुलमता ४७०
९२९० भानका लक्षण ४५६ | ५५१ त्याग वैराग्य आदिकी आवश्यकता ४७०
५२१ आमकी आद्र नक्षत्रम विकृति ४५६ | ५५२ सव का्यौकी भथम भूमिकाकी कठिनता ২৩০
५२२ विचारदका ४५६ | ५५३ ““समज्या ते शमाई रहा” ४७१
५२३ अनंतानुबंधी कपाय ४५७ | ५५५४ जो सुखकी इच्छा न करता दौ वदं
५२४ केवलज्ञान ४५७ नास्तिक; सिद्ध अथवा जद है ४७१
५२५ मुमुक्षुके विचार करने योग्य बात ४५७ | ५५५९ दुःखका आ्त्यतिक अभाव ४७१
५२६ परस्थर दशेनोंभे भेद ४५८ | ५५६ दुःखकी सकारणता ४७१
५५२७ दर्नोकी तुलना ४५८ । ५५७ निर्वाणमार्म अगम अगोचर है ४७२
+५२८ साख्य आदि दर्शनोंकी तुलना ४५९ | ५५८ शानी पुरुषोंका अनंत ऐश्वर्य ४७२
५२९ उदय प्रतित्रध ४५९ | ५५९ पल अमूल्य है ४७२
५३० निवृत्तिकी इच्छा ४५९ | ५६० सतत जागृतिरूप उपदेदया ४७६
५३१ सहज ओर उदीरण प्रवृत्ति ४६० २९. वो वषे
५३३ अनतानुबंधीका दूसरा भद ४६० | ५६१ ^ समजीने शमाई र्या, समर्जनि शमारई
५३३ मनःपर्यवशान ४६१ गया ” ४७४
५३४ “यह जीव निमित्तवासी है' ४६१ | ५६२ मु॒मुक्षु और सम्यग्दृष्टिकी तुलना ४७५
५३५ केवलुदशनसबंधी शका ४६१ | ५६३ सुदरदातजीके ग्रय ४७५
५३६ केवलजान आदिविपयक प्रन ४६२ | ५६४ यथाथ समाधिके योग्य लक्ष ४७५
५३७ गुणके समुदायसे गुणी भिन्न ই আা লর্থী ४६२ | ५६५ सर्वसंग-परित्याग ४७६
इस कालम केवलन्ञान हो सकता है या नदीं ४६२ | ५६६ छौकिक और शास्त्रीय अमिनिवेश ४७६
जातिस्मरण शान ४६२-३ | ५६७ सव दुःखोका मूल संयोग ४७६
प्रतिसमय जीव किस तरह मरता रहता है. ४६३ | ५६८ “ श्रद्धाशान लक्मा छे तो पण ” ४७६
केवलदर्शनमें भूत भविष्य पदार्थोका शान ५६९ शास्रीय अभिनिवेश ४७६
किंस तरह होता रै ४६३ | *५७० उपाधि त्याग कसनेका विचार ४७७
५३८ देखना आत्माका गुण है या नहीं ! ४६४ | +५७१ भू--न्रक्ष ४७७
आत्माके समस्त शरीस्में व्यापक होनेपर +५७२ जिनोपदिष्ट आत्मध्यान ४७७
भी अमुक भागसे ही क्यों शान होता है ! ४६४ | ५७३ ¢‹ योग असख ज जिन कलया ” ४७८
शरीरम कोडा हेते समय समस्त प्रदेशोंका ५७४ सर्वसंगपरियागका उपदेश ४७८
एक स्थानपर सिच आना ४६५ | ५७५ परमार्थं ओर व्य॒व्टारखयम ४७८
५३९ पदका अथ ४६५ | ५७६ आरंभ परिग्रहका त्याग ४७९
५४० युवावस्थामे विकार उत्पन्न होनिका कारण ४६६ | ५७५ त्याग करनेका लश्च ४७९
५४१ निमित्तवासी जीवोके सगका त्याग ४६६ । ५७८ ससारका त्याग ४७९
५४२ ‹ अनुभवप्रकाश्च ' ४६६ | ५७९ सत्संगका माहात्त्य ४८०
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