आत्मानुशासन प्रवचन भाग छ: | Aatmanushasan Pravachan (bhag - Vi)

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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गाथा ६१ ११ -लक्ष्यकी वुड़ताकी अनुरोध--हे साधो ! देख अपना उद्देश्य) अपना लक्ष्य निर्मल बने । तेरे परे अन्तरज्धके संकट आंते हैं तब भी, बह्रिज्ञके संकट चति हैं तब॑ भी तू उन संकटोंके भाषोंके छोर अंधिंक भीतर अन्त- হব) ভান श्पमें इस श्रद्धानेंक्रो तो पूर्ण शुंद्ध संबच्छ ही बनाये रहे मेरा स्वभाव तो एक ज्ञानमात्र है; जाननस्वरूप हैं। श्ानानन्दर्वभावमात्र नहीं में हूं, इंस प्रतीतिको न तर्ज । ज्ञान सम्यगछाल एक जार जगनेपर वह तो मी रध्तों है, फिर कर्मप्रेरणा। कर्मो्ण विशेष आ भी जार्थतों भी উন सो नंकर भी, घवड़ा फर भी, विह्वेल होकर भी भीतर श्रव्यर रूपसे अपने श्रद्ध/नफा उत्तम फक्न घराबर प्रॉये ही जा रहा दे यह शञानी। हे साधु ! लोकपक्तिन चाहंकरं, लोकएपणा न चवाहकर फिर तू ज्ञान और तंपस्योर्मे कितना ही च्पनेकों मोफे हे, शरीरको संखा ले, ये सब फार्थ- फारिणी चेष्टायें होंगी । और एक लोकपक्ति चाहकर लोकेषणा कितना भी तू कुछ कर ले परोपकार आ्रोदिक तो निमित्तनेमिशिकता जो कुछ होनी हो, होती ही है, नसेका तो कोई संग न कर हेगा | , হা 'उपदर्भभावकी फांयेफारिता- सेया | केवल शास्त्रोंका पेढ़ना और तप फा फरना ही तो कार्यकारी नहीं है । कार्यकारी तो उपशसभाव हैं, शान्ति का परिगम है यदि क पुरुष शास्त्र एहफर तत्त्वक्ञान बलसे कषार्योफो कम कर ता है, तप्ंचरणा कर्कं रेसा ध्यन्त' यरन फरता है कि इष्ट अभिष्ट अनेक वातायरण साधन सामप्री मिलें तब भी হাবাছুন লর্টী होने दे, ऐसा লাঘল উলালা ই, করাত दूर फरत्ता है उसके तो शास्त्रअध्ययल ओर तपस्या टोंनों ही सफल हैं । शौर जौ शास्र पटकफर नपस्या करके मन रमाने फा ही क्वाम करे | सान चडाईका ही फाम करे | मोजसे गूजारा चल रहा है इसमें ही तृप हो जाय तो जेसे ओर लोग फिया करते हैं .विषयकषायोंके आर्थी, व्यापार करें; सेचादिक करे तेस पी इस मोधने लोकिकं कार्योके लिए तपश्चरण न्मया है, ज्ञान मम्पादन किया है, भेषमात्रसे श्अन्वरद्धका ' अन्तर तो ज्ञान ओर छज्ञानका है । इस काण हे मुयुश्वुएरुषो ! तपश्चरण फरो, ज्ञान फरों और ज्ञानफा फल्ष ज्ञातारप्ठा रहता मानो और तपश्चरण को फल विषयकषा्योका कम होना मानो.। इस ही ल्क्ष्यकों करके तुम ज्ञानमें झोर तपश्चरश्में खूब वृद्धि करो, इसमें ही कल्याण है | दृष्टवा जनं. रजसि फ विषयाभिलाषं, स्वल्पो ऽप्यसो तव. महल्ननयत्यनथैम्‌ । सनेहोद'पक्रमजुषो हि यथातुरस्य, . दोषो निषिद्धचरणं न तयेतरस्य ।॥१९१॥ भरनयकारी पिषर्याभिलाषमे गमन पर सेद--द , आत्मन्‌ तू आगार




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