मंगलतंत्र प्रवचन | Mangaltantra Pravachan

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Mangaltantra Pravachan by श्री मत्सहजानन्द - Shri Matsahajanand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मंगलतंत्र प्रवचन ११ किस प्रकार हुए ? तो जैसे एक तो होता है बन्धन-भौर- एक होता है ख़द बँघ जाना । तो परकी श्रोरसे तो इसका बन्धन नही है, परतंत्रता नही है; क्योकि यह श्रम है । अमूतं भ्रमूतं - कौ बाघ नही, सकता, भ्रमूर्तको मूतं बाघ नही सकता । जसे भ्राकाशको कोई प्रभूतं द्व्य नदी बवता भ्रौर मूतं भी नही बवता ! तो कोई परप्रदार्थ मेरे श्रात्माको बांघत्ता नही, किन्तु यहं मैं अ्ज्ञानवश परमें- रमकर, परका स्नेह रखकर बंध जाता हु । यह ही भात्मा परदृष्टि करके बंघ गया है । भ्रव प्रश्त यहाँ भी होगा कि, ऐसा भण्ने श्राप जीव क्यों बंध गया ? जब यह स्वरूपतः श्रद्रै है श्रपन्य आ्रात्मा है तो अभ्पनी मर्त्ीसि भी क्‍यों बेध गया । बयो मर्जी की ऐसी ? तो उत्तर तो प्राना ही ष्डेगा कि यहु निमित्तनैमित्तिक योगकी बातत है । भ्रव इन सारे दद-फर्दासे छूटनेका उपाय क्या है ? किसी परपदाथैका अनुग्रह करें, निग्रह करे, विगाड सुधार करें, आ्राश्नय लें, ये दुःख द्ुटनेके उपाय नही है । केवल एक ही उपाय है दुःखसे चुट कारा पानेका कि मैं अपनेको यह समझ लू कि में ज्ञानमात्र हु। प्रयोग करके भी देखो । जब यह समझ रहे हों कि मैं मनुष्य हू, अमुक्त हू, श्रमुक नामका हू, ऐसी पोजीशनका हु तो उसके श्रचुषूप विकल्य होते श्रौर इसको दुःखी होना षडना, रौर समक जाय किर्मैतोज्ञन ज्ञानमात्र ।जैसा मैं हू वसे सवदै, जेमा सत्रक्रा स्वल्प है वता ही पेरास्व्ल्पहै। एषा जब ज्ञ गे श्ाता है तो चूंकि विशेषता লাবনী, বর समता हुई, वहाँ क्लेशका नाम नही रहता। मुक्ति पाना एक सर्वोत्कृष्ट वंभव है, किन्तु मुक्तिका पानां यो मोहके ढगोसे न होगा । जिसने प्पने श्रद्धा बलसे समस्त परयदार्थंसि उपेक्षा कर लिया, जिते करेगे ठि परमासुमात्र- मी राग न रहा, एेसा एकं भ्रान्तरिक प्रयत्न कर लिया तो मुक्तिका मार्ग मिलेगा। उसमें एक ही निणंय है । कुछ यह भी करें, कुछ चह শী करे, कुछ स्वाध्याय भी करें, कुछ बच्चोसे मौज भी रखें, ऐसी सब तरहकी बानोंसे मार्ग न मिलेगा । उसके लिए निशय एक ही है--सबसे कटकर ही रहना । श्रपनेको विविक्त ही रखना, भ्रपनेको ज्ञान्मात्र निरखना, सबसे निराला देखनेका प्रतीक है ज्ञानमात्र निरखना । केवल ज्ञान ज्ञान हो मैं हूं, जञानसिवाय मैं श्ौर कुछ नही । ऐसे श्रमुभवमे, ऐसी बुद्धि में सर्व इच्छायें दूर हो जाती हैं । मैं ज्ञान ज्ञान हो हु, ज्ञान सिवाय झौर कुछ कर सकता नही, शानसिवाय कुछ भोग सकता नही, ज्ञानको छोड़कर रह सकता नही । ज्ञान ही ज्ञान मेरा स्वरूप है | ज्ञान हो वैभव है, ऐसा प्पनेको मात्र ज्ञान ज्ञान रूप हो निरखनेमें श्राये तो उम्तकी सववे प्रवृत्तियोंमे अंतर জা जाता है श्रौर एक यह ही कला न हो पायी तो बाकी जितनी कलायें हैं ने सब वेकार हैं । (१३) एकत्वविभक्त ज्ञानस्वरूपके अवधारणकी महिमा--इस जानमात्र अनुमववा विन्ददी दा्शनिकोने श्राननदानुभव नाभ दिया, हिन्दी दाशंनिकोंने मात्र विज्ञान नाम दिया,




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