समाजवाद की रूपरेखा भाग 2 [पूँजीवाद] | Samajwad Ki Rooprekha Vol II [Punjiwad]

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ५ ) रोके तो यह उसकी ग्रलती है 1 श्राप उसकी वात न मानिये। हिंदी में विशिष्ट (/००॥७०७)) शब्दों का अभाव है। मैंने यथाशक्ति सर्व- श्री दयाशंकर दुबे, भगवानदास केला और सम्पूर्णानन्द्‌ की शब्दावली का ही प्रयोग किया दै । नई-नई शब्दावलियों को वनाना अभीष्ट नहीं क्योकि इससे पाठकों के विचार अस्पष्ट (००७०१) हो जाने का भय है। मैंने “एशप०' के लिये श्री सम्पूर्णानन्द का “अर्घ! शब्द प्रयुक्त किया है, दुबे-केला का भूल्यः शब्द नहीं। क्योंकि फिर हमें ०० का समानाथं शब्द्‌ क्रीमतः वनाना पड़ेगा; मगर साधारण बोल चाल में 'मूल्यः और क्रीसतः समान अर्थ वाले माने जाते हैं। इसलिये यदि दुवे-केला-राब्दावली को प्रयोग क्रिया जाता तो शायद पाठकगण मूल्य और क्रीमत का एक ही अर्थं लगा जते और असली मतलब गड़बड़ हो जाता । ख़ास कर शर्धं सिद्धान्त की विवेचना करते सयय “ए७।४० और ८०९ का वारीक्र अंतर वहुत महत्वपूर्णं ই रौर इस भिन्नता को जिस किसी साधन द्वारा जितना अधिक स्पष्ट करिया जा सकता दै, उतना ही अच्छा । 'मूल्ः और ्रीमतः शब्द आसान अवश्य हैं, इसलिये यदि अस्पथ्ता का भय न हो तो उनका प्रयोग सी मान्य है। अनेकों स्थान पर मुझे नये शब्दों के गढ़ने की आवश्यकता पड़ी है। वहाँ संस्कृत या वेंगला साहित्य का आश्रय लिया गया है । मैंने जिन लेखकों के ग्थों से सहायता ली है, उनका मैं बहुत বন্ধ हूँ । इस पुस्तक की त्रुटियाँ, दोष और अभाव के दूर करने में जो विद्वान्‌ मुझे सहायता देंगे उनका मैं ऋणी होऊँगा। पं० दयाशंकर दुबे के परामर्श से मैंने बहुत लाभ उठाया है, इसके लिये में पंडित जी का वहुत आभारी हूँ। यदि इस रचना से मुझे कुछ प्रोत्साहन मिला, तो शायद हिंदी में कुछ और सेवा कर सकृ 1 जाजे यउन } अमर नारायण अग्रज प्रयाग




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