राजवाड़े लेख संग्रह | Rajwade Lekh Sangrah

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तर्कतीर्थ लक्ष्मण शास्त्री - tarktirth lakshman shastri

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वसन्त - Vasant

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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न है हज करते हुए संकटों से सासना करना पड़ता पर वे जुमतें रहे श्र उत्साहः से काम करते रहे । प्र की दि उदाहरखणा प्रथम खण्ट के सम्पादन की कथा था घ्पोन-मे रखने योग्य है । इतिहास-साधनों के अनुसंधान का. वास्तविक प्रारम्भ नई में हुआ । बाई से श्री एरप्डे के बाड़े में आपको पानीपत की लड़ाई से सम्बन्धित प्रथम कोटि के प्रमाणों से परिपूर्ण दस्तावेज़ चमडे के बक्‍्स मे सुरक्षित रूप में प्राप्त हुए । इसी के श्राघार पर उन्होंने प्रथम खण्ड तैयार किया श्रौर पून के फड़के-बाड़ा स्थित विटुल मुद्रणालय में छपवाया । सुद्रशालय में श्राग लग जाने से पाण्डुलिपि श्रौर पुस्तके जनकर राख हो गई । राजवाड़ेजी ने वही खण्ड दुबारा लिखा फिर वही परिश्रम फिर पुराने दस्तावेजों की जाँच श्रौर परीक्षा । उनके एक मित्र ने कहा कि झाप क्यों इतना परिश्रम करते हैं ? उनका उत्तर था-- ्रादमी परिश्रम से नहीं मरता झ्रालस से मरता है । प्रथम खण्ड की प्रस्तावना में श्रापने पानीपत की लड़ाई में मराठों की हार की मीमांसा की है । उसके पदचाद्‌ वाई के निकट मेणावली नामक ग्राम में नाना फइडसीस सम्बन्धी कागज- पत्र दिन-रात काम कर जाँचे । मुगलो के देशमुख भ्रोभडडे के सुर्याजी पिसाल के दस्तावेजों का श्रध्ययन किया । उसके सम्बन्ध में लिखते हुए श्रापने कहा कि सूर्याजी पिसाल मुगलों का सहायक श्रीर मराठों का गनीम दात्रु था और इसीलिए उसकी कड़ी श्रालोचना की । फलत नाराज होकर कागज-पत्रों के स्वामी ने श्रोकडे-पुलिन्दा राजवाड़ेजी को नहीं दिया । राजवाडेजी ने दस्तावेजों के रूप में जितने इतिहास-साधन प्रकाशित किये उससे कितने ही श्रधिक उनके पास श्रप्रकाशित रहे जिन्हे उन्होंने पूने में स्वर श्रपने द्वारा सन्‌ १९६१० ई० में स्थापित भारत-इतिहास-सेशोधक मण्डल में रवखा । उसके बाद का संग्रह उनकी पुण्यस्मृति में संस्थापित धूलिया के राजवाड़े संशोधक मण्डल में सुरक्षित है । उन्होंने मराठी श्रौर संस्कृत भाषा तथा व्याकरण तथा हिन्दू-समाज के सप्चम्य थे थो। चवुसनयान किया नह फत्यन्त झहल्यफूएं है जहाराप्ट्र साया पजाव से विष्यातु महानुभाव-सम्प्रदाय का मराठी साहित्य मराठी का प्राचीनतम साहित्य है जो भ्रनेक गुप्त एवं सांकेतिक लिपियों में लिखा हुमा है । गुप्तलिपियों का रहस्योदूघाटन सब से पहले राजवाड़ेजी ने स्वबुद्धि से किया झौर मद्दानुभाव-साहित्य का दार सब के हितार्थ खोल दिया । एकसाथ के पूर्व की ज्ञानेश्वरी की एक प्रति उन्होंने सब से पहले सोज थि पड व्याकरण तँयार किया श्रोर सिद्ध किया कि वहीं लमरवर . पर




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