स्वामी जी का बलिदान और हमारा कर्तव्य | Swami Ji Ka Balidan Aur Hamara Kartavya

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Swami Ji Ka Balidan Aur Hamara Kartavya by हरिभाऊ उपाध्याय - Haribhau Upadhyay

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हरिभाऊ उपाध्याय का जन्म मध्य प्रदेश के उज्जैन के भवरासा में सन १८९२ ई० में हुआ।

विश्वविद्यालयीन शिक्षा अन्यतम न होते हुए भी साहित्यसर्जना की प्रतिभा जन्मजात थी और इनके सार्वजनिक जीवन का आरंभ "औदुंबर" मासिक पत्र के प्रकाशन के माध्यम से साहित्यसेवा द्वारा ही हुआ। सन्‌ १९११ में पढ़ाई के साथ इन्होंने इस पत्र का संपादन भी किया। सन्‌ १९१५ में वे पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी के संपर्क में आए और "सरस्वती' में काम किया। इसके बाद श्री गणेशशंकर विद्यार्थी के "प्रताप", "हिंदी नवजीवन", "प्रभा", आदि के संपादन में योगदान किया। सन्‌ १९२२ में स्वयं "मालव मयूर" नामक पत्र प्रकाशित करने की योजना बनाई किंतु पत्र अध

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ओर हिन्दूमुस्लिम-समस्या प्रत्येक पहल पर, अपने ढंग, पर, और अपने तौर पर बहुत कुछ विचार किया है और मेरे अपने कुछ मजबूत खयाल इस विषय में बन गये. हैं । खासी जी महाराज की ह॒त्या के बाद खभावतः कुछ मित्रों से हत्या के परिणाम, देश का कतेव्य, एकता का खरूप ओर साधन, हिन्दुओ का कतेव्य” आदि विषयो पर चचो हुई । उनसे कुछ भाइयो की उलमनें सुलभी हुई दिखाई दी। उन्होने आम्रह किया कि में इस अवसर पर अपने विचारो को ज्यो का त्यो जनता के सामने उपस्थित कर । मेरे दिल से मी आवासे उठी कि अब चुप साध कर बेठे रहना गुनाह है। में अपनी ओछी शक्तियोँ और - अल्पज्ञान के साथ इसं महान्‌ और ভক্ত विषय पर कलम चलाने का साहस कर रहा ह! अपनी अयोग्यता ओर अनधिकार के खयाल से कलम संकोच ओरं सिफकं के साथ उठी है । श्राजादी, स्वराज्य, एकता ओरं प्रेम के दैश्चरीय भाव मेरे सहायक होंगे । पहले मनुष्य, पीछे हिन्दू-- - में अपने को सब से पहले मनुष्य, फिर इिन्दुस्तानी, फिर हिन्दू , फिर ब्राह्मण मानता हू । मेरे नजदीक इन चारों बातो में नतो किसी प्रकार की विसंगति है, न विरोध । मेरे विचार में दिन्दू-धमं मे मवुष्यत्व के पूणं विकास के लिए काफी जगह है । इस लिए उसके मुकाबले मे दूसरे मज़हब मुझे! नहीं जैँंचते; पर मै उनको उसी इज्जत की निगाह से देखता हूँ, भिससे में चाहता हूँ कि वे मेरे धमं को देखें । पूर्वोक्त विचारक्रम मेरी इसी विचार- १५




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