समयसार प्रवचन [भाग -15] | Samayasar Pravachan [Bhag -15]

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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गाथा ३७४ | १३ स्वरूपकी संभाल विनां सर्वत्र विषत्तियां- मेया ! अपने स्वरूपकी जव संभांल नहीं हैं तो चारों ओरसे संकट घिर जाते हैं, और अपने स्वरूपकी संभाल है तो कोई संकट नहीं है। जिसे आप कठिनसे कठिन परिस्थिति ` कहते हो, टोटा पड़ जाय, धर चिक जायं, घरका कोई इष्ट गुजर जाय, भिन्रजन विपरीत हो जाएँ, रिश्तेदार मुँद्द न तकें, और और भी वातें लगा लें; जो भी खरावसे खराव परिस्थिति यहाँ मानी जाती हैं तो सबको लगालो । उस समय भी यदि इस जीवकों सबसे निराते ज्ञानसात्र अपने स्वरूपकी खवर है तो वहां उड़दकी सफैदी वरावर भी संकट नहीं है ओर बहुत अच्छीसे अच्छी स्थिति लगा लो, आमदनी भी है, तोगोंमें इजत भी है, मकान भी हैं। मित्र भी आते हैं; वन्‍्धु भी लाला लाला कहकर अपनी जीभ सुखाते हैं और अच्छीसे अच्छी परिस्थिति मान लो, उसमें भी यदि ज्ञानस्वरूप अंतस्तत्त्वकी संभाल नहीं है तो वाहरमें कुछ भी सोचने-से संकट न टल जायेंगे । इतना तो सोचते ही हैं कि अभी तो इतना ही है, इतना और होना चादिए था। बस इतना ख्याल आया कि संकटोंमें पड़ गया । तो ये वाह्मपदाथे वाह्य शब्द, वाह्य परिणमन ये कुछ भी नहीं कहते हैं तुमको । तुम स्वयं अज्ञानी वनकर व्यथय रोष करते हो और भी पेखो- असुद्दो सुद्दो ध सदी ण॒ त॑ भणइ सुणसु मंति सो चेष । श य एड वििग्गहिड' सोयधिसयमागयं सद्द ॥३५५॥ शब्द व श्रात्माका परस्पर श्रनाग्रह--लोक के मंतव्यमें माने जाने वाले ये शुभ और अशुभ शब्द तुमको कुछ प्रेरणा न्द्टीं करते कि तुम हमको सुनो; खाली क्‍यों वैंठे हो ? और न यद्द आत्मा अपने स्वरूपसे चिगकर उन शब्दोंको सुननेके लिए उनको ग्रहण करता है था उनके पास पहुंचता है । शब्द शब्दमें परिणत द्वोते हैं; जीवःजीवपरिणामर्में परिणत होता है, फिर क्‍यों यह अज्ञानता की जा रही है कि यह मान लिया कि इसने मुझे थों कद्दा। किसी से विरोध हो और वद्द भल्ती भी वात कहे तो इसे ऐसा लगता है कि हमसे मजाक किया। तो यद्द तो जेसा अपना उपादान उसके अनुसार इन ভান विषयोंमें कल्पना करता है और हुःखी होता है । जैसे यँ कमरे रहने बाली चीजें मान लो रात्रिके समय देघुल, कर्सी) भेज आदि ये सब पड़े हुए हैं तो क्‍याये विजलीके वहबके साथ कभी लड़ाई करते दें कि हम तो अंधेरेमें पढ़े हैं. तुम क्‍यों वेफार মতি हो जल्षते क्‍यों नहीं दो ? किसी ने यदि ऐसी लड़ाई देखी हो तो बतलावो। दृष्ठान्तपुर्वक ज्ञेय ज्ञाताका परस्पर भनाग्रह--ये वःहपदार्थ इस दीपक को प्रकाशित. करने के जल्िए कभी प्रेरणा नहीं करते ओर यह दीपक भी झपने स्थानसे च्युत द्वोकर इन मेज, कर्खो आदिकको प्रकाशित करने के




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