धर्मामृत सागार | Dharmamrit Sagar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१४ धर्मामृत ( सागार ) ““मद्य-मांस-परित्यागः पञ्चोदुम्बरवजंनम्‌ । हिसादिविरतिरचास्य व्रतं स्यात्‌ सार्वकालिकम्‌ ॥ *--महापु. ३८।१२२। इसमें मधुत्याग नही हैँ | तथा ह्विसादिविरतिको गिननेसे आठ हो जाते हैं। किन्तु चुत्तत्याग नहीं है। अतः भहापुराणके नामसे उद्धूत उक्त सलोक विचारणीय हं । महापुराण, पुरुषार्थसिद्धधुपाय, सोमदेव उपासका- घ्ययन, पद्यनन्दि पंचविशतिका, सागारधर्मामृत आदिमे पांच उदुम्बर फर्लोके त्यागव्े ही भणुव्रत आते है । रत्नकरण्डमे ही पचि अणुव्रतवके अष्टमूल गुण पाये जाते है । कहाँ पाचि अणुव्रत गौर कहाँ पाँच उदुम्बर फलोका त्याग, दोनोमें मोहर और कौड़ी जैसा अन्तर है। पाँच अणुन्नत तो नैतिकताके भी प्रतीक ह। किन्तु पाँच उद्म्बर फलोंका त्याग तो मात्र स्थूछ हिसाके त्यागका प्रतीक है। देखा जाता है कि आजका ब्रती श्रावक खानपानकी शुद्धिकी ओर तो विशेष घ्यान देता है किन्तु भावहिसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहकी ओरसे उदासीन जैसा रहता है। मानो ये पाँचों श्रत उसके लिए अनावश्यक जैसे है । इससे ब्रती श्रावकोकी मी नैतिकतामें हास देखा जाता है ओर उससे धर्माचिरणकी गरिमा हीन होती जती हं । अतः पाँच अणुत्र्तोकी भोर ध्यान देना आवद्यक है । मद्य, मांस, मधु--हिन्दू या वैदिक धर्ममें मद्य, मांस और मधुक्रे सेवनका विधान है। यज्ञोंमें पशुवध होता था और हविशेषके रूपमे मांसका तथा मद्यका सेवन करना घमं भाना जाता था । अतिथि सत्कार तो मधुपर्कके बिना होता ही नहीं था। मांसके सम्बन्धमें परस्पर विरोधी विचार मिलते हैं। धर्मशास्त्रका इतिहास भाग १, प्‌ ४२० पर मांस भक्षण पर लिखा है--शतपथ ब्राह्मण ( ११॥७१४३ ) ने घोषित किया हैं कि मांस सर्वश्रेष्ठ भोजन है। साथ ही शतपथ ब्राह्मणने यह भी सिद्धान्त प्रतिपादित किया है कि मांसभक्षी आगेके जन्ममें उन्ही पशुओं द्वारा खाया जायेगा |” घमंसूत्रोंमे कतिपय पशुओं, पक्षियों एवं मछलियोंके मांस भक्षणके विषयमें नियम दिये गये है । प्राचीन ऋषियोंने देवयज्ञ, मधुपर्क एवं श्राद्धमें मांसललिकी व्यवस्था दी है। मनु ( ५1२७-४४ ) ने केवल मधुपर्क, यज्ञ, देवकृत्य एवं श्राद्में पशुहननकी आज्ञा दो हैं। अन्तमें मनुने अपना यह निष्कर्ष दिया है कि मासभक्षण, मद्यपान एवं मैथुनमें दोष नहों है क्योंकि ये स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ हैं। कुछ अवसरों एंवं कुछ छोगोंके लिए शास्त्रानुमोदित है किन्तु इनसे दूर रहनेपर महाफलको प्राप्ति होतो है । शायद इन्ही प्रवृत्तियोंको ध्यानमें रखकर जैनाचायंनि मद्य, मास, मधुके त्यागको ही जैनाचारका आधार माना है । रल्नकरण्ड धावकाचारमे कहा है- श्रसहतिपरिहरणार्थं क्षौद्र पिशितं प्रमादपरिहूवये । मद्य च वर्जनीयं जिनचरणौ शरणमुपयातैः ॥८४॥'* अथात्‌ू--जिन भगवान्‌के चरणोंकी शरणमें आये हुए मनुष्योंको त्रसहिसासे बचनेके लिए मधु और मांस तथा प्रमादसे बचनेके लिए मद्य छोड़ना चाहिए । इसमें मद्यपानमें त्रतघात न बतलाकर प्रमाद दोष बतलाया है । किन्तु उत्तरकालीन सव श्रावका- चारोंमें मधथपानमें भी हिंसाका विधान मुख्यरूपसे किया हूँ । पु. सि में कहा हँ--मद्य मनको मोहित करता हं । मोहितचित्त मनुष्य धर्मको भूल जाता ह । मौर धर्मको भूखा हुभा जीव अनाचार करता हं । मधुमें तो त्र्साहसा होती ही हैं । आजकल मधुमविखयोंको पाछकर उनसे मधु प्राप्त किया जाता है ओर उसे अहिसक कहा जाता हैँ । किन्तु ऐसा सथु भी सेवन नहीं करना चाहिए; क्योकि सेवन करने पर अहिसक और हिसकका माव जाता रहता ह 1 जिकर पाद्चात्य सभ्यताके प्रचारके कारण कलाकार रूपमें मद्य मांसका सेवन न करनेवाले जैन धरानोंके युवकोंमें भी मद्य मांसके सेवतकी चर्चा सुनी जाती है। उच्चश्रेणीकी पार्टियोंमें प्रायः मद्य मांस




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