जो है सो | Jo Hai So

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Jo Hai So by आत्मानन्द - Aatmanand

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about आत्मानन्द - Aatmanand

Add Infomation AboutAatmanand

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
साहित्य साहित्क समाज का दर्पण है । न जाने यह नापिताई उक्ति किस केशकतेंनालय मे बनी है जहाँ के श्रध्यक्ष के तत्वावधान मे चलने वाले सभी कार्यो मे दपेण आगे-पीछे लगा रहता है। यदि वह किसी दपंरकार की सूझ है तो क्या कहने ? बिना यह बताये कि दर्पण मे दुनिया-भर की चीजे दिखाई देती है उनका व्यवसाय कंसे चलेगा ? बताइये समाज भी कोई स्थूल चीज होती है जिसकी शक्ल दपंणमे दिखाई दे? आप कटेगे धरवार, नर-नारी, पशु-पक्षी, सडक-बाजार, खेत-खलिहान सब स्थल ही तो होते है | परन्तु समाज का यह सब लवाजमा नदी का तल- पाठ ही है, उसकी श्रोतधारा तो जन-जीवन का प्रवाह होता है । समाज कोई खालिस ढाँचा या बेरोकटोक कार्यवाहियो का मैदान नही जो बठे-ठाले दरपेणा में दिखाई दे । वह तो सतत्‌ विकासशील भूत से निकला, वर्तमान मे भागता झऔर भविष्य मे समाता रहता है। उसमे अनेकानेक भंमटी विचार-सवेग श्रोर हिचकिचाहट लिए टेढे-प्राडे प्रयोजनो की एक खशखला रहती है। उसमे मानव-म्बन्धो की एक लड़ी पडी होती है । उसकी बेशुमार आकाक्षाएँ, भावनाएँ, परम्पराएँ और निष्ठाएँ होती हैं। ये सब स्थल तो नही है, उन्हें मूतिवान बनाना भी कठिन है। फिर इन सूक्ष्मातिसूक्ष्म भावनाओ्रो और सम्बन्धो को दपंण मे कैसे देखा जा सकता है । भ्रगर दपण भी दहै तो फिर कसा दपण ? दपंणे-दपंणे बिम्ब भिन्नम्‌ । दपेण भी कई प्रकारके होते है । पैटखलाऊ नतोदर्‌ जिसमे 9




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now