नैतिक जीवन के सिद्धान्त | Natik Jeevan Ka Sidhant
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
28.74 MB
कुल पष्ठ :
174
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)नतिक सिद्धान्त का स्वरूप 1 दृष्टिकोण रहता है । जो व्यक्ति इस बात की उपेक्षा कर देता है कि उन बहुत-से कामों का जो ऊपर से देखने में न्यूनाधिक रोजमर्रा के काम प्रतीत होते हैं उन थोड़े-से कामों के साथ जिनसे स्पष्ट रूप में नैतिकता का प्रदन जुड़ा है संबंध है उस पर कतई भरोसा नहीं किया जा सकता | 3. श्राचरण श्र चरित्र बातचीत में जब हम श्रौचरण शब्द का प्रयोग करते हैं तब हम एक तरह से इन तथ्यों को स्वीकटुर करते हैं । यह शब्द मनुष्य के काम की निरस्तरता भ्ौर सातत्य के विचार को जिसे हम भ्रभी स्थायी श्रौर बद्धमुल चरित्र के प्रसंग में ऊपर देख चुके हैं श्रभिव्यक्त करता है । जब कहीं हम झ्राचरण का उल्लेख करते हैं तो वहाँ हमारा अझभिष्राय कुछ ऐसे कामों की शृंखला से नहीं होता जो परस्पर सम्बद्ध नहीं हैं बल्कि वहाँ हर काम में एक प्रवृत्ति भर इरादा श्रन्त- निहित रहता है जिसके परिणामस्वरूप श्रागे कुछ श्रौर काम भी होते हैं श्रौर इस प्रकार एक परस्पर-सम्बद्ध तब तक चलती रहती है जब तक कि उसकी श्रॉन्तिम परिणति न हो जाए । हमे दूसरों से जो प्रशिक्षण लेते हैं या स्वयं भ्रपने-प्रापको जो आात्म-दिक्षण देते हैं होने वाले लैतिक विकास का झर्थ यह ज्ञान ही है कि हमारे सब काम एक-दूसरे से सम्बद्ध हैं प्रौर इस ज्ञान के फल- स्वरूप श्रन्धभाव से श्रौर बिना सोचे-विचारे किए जाने वाले पृथक्-पृथक् कामों का स्थान एक परस्पर-सम्बद्ध प्राचरण का ले लेता है । जब एक व्यक्ति में कुछ नैतिक स्थायित्व भ्रा जाता है तब भी उसमें कुछ प्रनोभन रहता है और तौर पर वह यह सोचने लगता है कि यह तो बहुत मामुली-सा काम है या यह एक अ्रपवाद है श्रौर एक बार ऐसा तुच्छ-सा काम कर लेने पर भी किसी का कोई नुकसान नहीं होगा । उसे यह प्रलोभन होता है कि वह कार्यों की उस की उपेक्षा कर दे जिसमें एक काम दूसरे का परिणाम होता है श्रौर इस कार्य- श्यूंखला का अझ्रन्तिम परिणाम उन सबका सैंंचित निचोड़ ठोता है हम क्षुघाओं श्रौर श्रावेगों गर्मी श्रौर सर्दी श्रौर कष्ट प्रकाश श्रौर कोलाहल शभ्रादि की सीधी झ्नुक्रियाद्रों के प्रभाव के भ्रन्तगंत जीवन प्रारम्भ करते हैं -भूखा बच्चा एकदम भोजन पर टूट पड़ता है । उसके लिए यह काम निर्दोष श्रौर स्वाभाविक है। किन्तु किर भी शझ्रपने इस काम से वह श्रपने ऊपर भत्सना को श्रामंत्रित करता है उसे बताया जाता है कि उसे तमीज भ्ौर दूसरों का खयाल नहीं है बह न्ञालची है उसे तब तक इन्तज़ार करना चाहिए जब तक कि खाना परोसा नहीं जाता श्रौर उसकी बारी नहीं आरती । उसे यह बताथा जाता है कि उसके इस काम का सम्बन्ध केवल क्षुधा की तत्काल सन्तुष्टि से नहीं है जैसा कि वह कहता है बल्कि अन्य कारणों सै भी है । वह हर काम को श्रलग-प्रलग
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