चतुरी चमार | Chaturii Chamaar

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Chaturii Chamaar by श्री सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' - Shri Suryakant Tripathi 'Nirala'

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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আন্তরী পবা. ११ चमार दबेगे, ब्राह्मण दबाएैगे। दवा ह्‌, दोनों की जडं मार दी जायं, पर यह सहज-साध्य नहीं । सोचकर चुप हो गया । में अर्जुन को पढ़ाता था, तो स्नेह देकर, उसे श्रपनी ही तरह का एक आदमी समभकर, उसके उच्चारण की त्रुटियों को पार करता हुआ । उसकी कमज़ोरियों की दरारें भविष्य में भर जायँगी, ऐसा विचार रखता था । इसलिए कहाँ-कहाँ उसमें प्रमाद है, यह मुभे याद भी न था। पर मेरे चिरंजीव ने चार ही दिन में अर्जुन की सारी कमज़ोरियों का पता लगा लिया, और समय-असमय उसे घर बुलाकर (मेरी गैर- हाज़िरी में) उन्हीं कमज़ोरियों के रास्ते उसकी जीभ को दोड़ाते हुए ग्रपना मनोरंजन करने लगे । मुभे बाद को मालूम हुआ । सोमवार मियाँगंज के बाज़ार का दिन था। गोदत के पैसे मेनं चतुरी कोदे दिये थे। डाकखाना तब मगरायर था। वहाँ से बाज़ार नजदीक हं । में डाकखाने से प्रबन्ध भेजने के लिए टिकट लेकर टहलता हुआ बाजार गया । चतुरी जूते की दूकान लिए बैठा था। मेंने कहा-- मे “कालिका (धोनी) भया भ्राये हए हं, चतुरी, हमारा गोरत उनके हाथ भेज देना । तुम बाजार उठने पर जाग्रोगे, देर होगी ।“ चतुरी ने कहा-- काका, एक बात ह, भ्रजुनवा तुमसे कहते डरता है, मे घर आकर कहूंगा, बुरा न मानना लड़कों की बात का ।” अच्छा' कहकर मेने बहुत कुछ सोच लिया। बक़र-क़साई के सलाम का उत्तर देकर बादाम श्रौर ठण्डाई लेने के लिए बनियों की तरफ़ गया । बाजार मं मुभ पहचाननेवाले न पहचाननेवालों को मेरी विशेषता से परिचित करा रहे थे--चारों शोर से आँखें उठी हुई थीं--ताज्जुब यह था कि अगर ऐसा आदमी है, तो मांस खाना-जेसा घुणित पाप क्‍यों करता है। मुभ क्षण-मात्र में यह सब सम# लेने का काफ़ी अभ्यास हो गया था । गृरुमुख ब्राह्मण आदि मेरे घड़े का पानी छोड़ चुके थे। गाँव तथा पड़ोस के लड़के श्रपने-अ्रपनें भक्तिमान पिता-पितामहों को समभा




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