भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ भाग - 2 | Bharat Ke Digambar Jain Tirth Bhag - 2
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
23 MB
कुल पष्ठ :
363
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)आरतके विगभ्यर जग तोय
मर्शते स्वभ देतो सूयो उपर्य होतो है, सिन परतिमा चरथो पास वेस््त्र-कष्श मिलता है।
“कोर यो छंगोट्से चिहिल प्रतिसाओंके सिर्माणका काल तो पुप्तोत्तर बुर्ग भागा जाता ठै; জীবিত মহ শী.
সব प्रकोरकी प्ंतिसाशीका निर्माण अपवाद ही माना জা. सकता डे} ৭ ১2117,
:)..11. ' जवं तिर्य जैन संघर्मे-से फूटकर दवेताम्वर सम्बदाय निकला, तो उसे एक सम्पंदोयेके रूपमें ध्यंवस्थित ` `
/ झूप हैमेंमे ही काफी समय रूम गया । इतिहासकी दुष्टित इसे ईसकी छठी शताब्दी माना. सभा हैं। इसके.
८... भी वर्याप्त समयके बाद बीतराग तीथकर मूर्तियोंपर वस्त्रके चिल्कका अंकन किया गया। भौरे-घोरे यह विकार |
. अंदत्ै-बढ़ते यहाँ तक पहुँच गया कि जिन-मूर्तियाँ वस्जालंकारोंसे आध्छादित होने लूगीं और उसको बींक्सनता `
इस परिग्रहके आडस्थरमें दव गयो । किन्तु दिगम्बर परम्परामें भगवान् तीयकरके वींतेरोप रूपकी रखा .
जवतक अक्ुण्ण रूपसे श्री आ रही है ।
तीर्थ-क्षेत्रोंमें प्राचीन कालसे स्तूप, आयागपट्ट, धर्मचक्र, अष्ट प्रातिहार्य थुक्त शीर्थकर मूरलियोका निर्भाण
होता था भौर वे जैनं करके अप्रतिम अंग माने जाते थे। किस्तु १ १वीं-१२वों शताब्दिगोंके बादसे तो
प्रायः इसका निर्माण समाप्त-सा हो गया । इस बीसवीं शताब्दीमें अंकर भूरति और मम्दिरोंका निर्माण संख्याक
दृष्टिसि तो बहुत हुआ है किन्तु अव तीथंकर-मूतिर्थां एकाकी बनती है, उनमें न मष्ट ॒भ्रतिहार्यकी संयोजना
होती है, न उनका कोई परिकर होता है। उनमें भावाभिव्यंजना और सौन्दर्यका अंकत सजीव होता हैं ।
पूजाकी विधि ओर उसका ऋ्मिक-विकास
श्रावकके दैनिक आवश्यक कर्मों जाचायं कन्दकन्दने प्राभृतमें तथा वरांगचरित भौर हरिवंश-पुराणमें
दान, पूजा, तप भौर शील ये चार कर्म बतलाये ह । भगवज्जिनसेनमे इसको अधिक व्यापक बनाकर पजा
বালা, হান, स्वाध्याय, संयमं मौर तपको शक्रावकके आवश्यक कर्म बतलाये। सोमदेव और पहष्मनन्दिने देवपजा
गुरूपासना, स्वाध्याय, संयस, तप और दान ये पडावश्यक कर्म बतछाये ।
স্থল सभी आचजार्योते देव-पूजाको श्रावकका प्रथम आवश्यक कर्तव्य बताया है। परमात्मप्रकाश
(१६८ ) में तो यहाँ तक कहा गया है कि “तूने न तो मुनिराजोंकों दाम ही किया, न जिन भगवान्की पूजा
हो की न पंच प्रमेष्ठियोको नमस्कार किया, तब तुके मोक्षका लाभ कैसे होगा ?” इस कथनसे भह स्पष्ट
हो जाता है कि भगवान्की पूजा श्रावककों अवइ्य करनी चाहिंए। भंगवान् को पूजा मोौक्ष-प्राप्िका एक
उपाय है ।
आवि-पुराण--पर्व ३८ में पूजाके चार भेद बताये हैं--नित्यपूजा, चतुर्मुखपूजा, कल्पदुमपुजा और
अष्टाह्लिकपूजा | अपने घरसे गन्ध, पुष्प, अक्षत ले जाकर जिमालयमें. जिनेन्द्रदेवकी पूजा करना सदार्चम अर्थात्
मित्यमह ( पूजा ) कहता है। मन्दिर और मूतिका तिर्माण:कराना, मुनियोंकी पूजा करना भी सित्यमह
कहुजाता है । भुश्ुटंबद्ध राजाओं द्वारा की गयी पूजा अतुर्मुख पूजा कहताती है.। चक्रवर्ती द्वारा की. जानेवाली
पूजा कल्पद्रुम पूजा होती है। और अष्टाहिकामें नन््दीदवर द्ीपमें देवों दर की जानेग्राली पूजा अ्शहिक ..
पूजा कहलाती है। . `
` पूजा बषटदरन्यसे को जाती है--जल, गश्य, अक्षत, पुष्प, मैबेध, दीप; जुप और ल 1. इस प्रंकारके ...
उल्लेख प्रायः सभी भां ग्रन्थों मिछते हैं। तिछोगपण्णलि (बेच्रम:झिकार, भाषा १०४ से ११३) में मल्दी-
इवर ही५में अंछाक्लिकामे देवों, द्वारा भक्तिपूर्वक की जोनेवाली पूजाका वर्णन है? उसमे अधदव्योंका बरर्णत आया...
हैं। धवला टीकामें भी ऐसा ही वर्धन है। आचार्य जिनसे कृत अआवियुराण (पर्व १७; इलोक २५२) में
4. অহ हारा तथा भव २३, शलोक १०६ धो दारा समभान्की पूजाके असंयर्म বাহাক্রা কা ধন,
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