कला का अनुवाद | Kala Ka Aanuvad
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
102
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१० - कला का अनुवाद
सो, इस देवी का, मेरे घर मे, तुम्हारी गरहाजिरी में भी पधा-
रना, मौलिक तो माना ही जाना चाहिये ।
मौलिकता की एक गतं शायद सुन्दरता भी हो । सो ये देवी
विमरु शुभ्र-वसना श्रौर ऐसी नपी-तुली गठन की हे, कि तुम न
हुईं, नहीं तो तुमने जरूर, 'नवागन्तुक से शीर्षक एक कविता ही
लिखी होती ।
हाँ तो ये आईं है। मह-लगापन” जरा इनमे ज्यादा है । शायद
यह स्वभाव तुम्हे पसन्द न हौ, किन्तु तुम्हारे कवि-जीवन के रिटायरिग
नेचर से, ओौर तेता-जीवन के अभिनेतापन मे, जो मुँह का बनाना,
एकान्त मे बेठना और सर-सपाठे लगाना है, उसमे इनका मूह लग
जाने का स्वभाव, बहुत भायेगा।
तुम्हारा कार तो अनंत ठहरा। वह तो कवियोँ का अनंत
हं। पर मंतो गरीब इन्सान नामक जानवर हुँ । मर सुबह,
दोपहर और शाम के बाद रात भी होती हे । मेरी उम् के बरस
होते हे, बरस के महीने, महीनों के दिन, दिन के घण्ट और घण्टे भी
टुकड़ें-ट्कड़ें में बट होते है ।
म मृत हूँ, मुझे मृत साथी ही भाता भी हू । अकमंण्य; यानी
दुनियाबी कामो मे लगा । तुम अमर हो, अमरादं का एकान्त तुम्ही
को शोभता भी है । उस समय मेरा भी एक साथी हो, तो ভুল জী
नाराजी होवे ?
गत॒ दिसम्बर सन्, ३६ मे, हम तुम खड, तब तुमने कहा था--
“बहुत दूरी से--अपने पारिवारिक और आत्मीयता के आकषेण
छोड़ कर, जो तरुणियाँ अपना जीवन सौपती हे, उन पर दृढ़
पड़ने के बजाय, उनका आदर करता चाहिये--तुम तो बस न
जाने कंसे हो !”'
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