राजस्थान का जैन साहित्य | Rajstan Ka Jain Sahitya
लेखक :
अगरचन्द्र नाहटा - Agarchandra Nahta,
कस्तूरचंद कासलीवाल - Kasturchand Kasleeval,
डॉ मूलचन्द सेठिया - Dr. Mool Chand Sethiya,
नरेन्द्र भानावत - Narendra Bhanawat
कस्तूरचंद कासलीवाल - Kasturchand Kasleeval,
डॉ मूलचन्द सेठिया - Dr. Mool Chand Sethiya,
नरेन्द्र भानावत - Narendra Bhanawat
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
21 MB
कुल पष्ठ :
537
श्रेणी :
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अगरचन्द्र नाहटा - Agarchandra Nahta
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कस्तूरचंद कासलीवाल - Kasturchand Kasleeval
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डॉ मूलचन्द सेठिया - Dr. Mool Chand Sethiya
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नरेन्द्र भानावत - Narendra Bhanawat
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)9
(3) जैस दस्त ने आत्म-विकास भ्र्थात् मुक्ति को सम्प्रदाय के साथ नही बल्कि धर्म
के साथ जीड़ा है। महावीर ने कहा-किसी भी परम्परा या सम्प्रदाय में दीक्षित, किसी भी लिय
में स्त्री हो या पुरुष, किसी भी बेश में साधु हो या गृहस्थ, व्यक्ति अपना पूर्ण विकास कर सकता
है। उप्के लिये यह आवश्यक नही कि वह महावीर द्वारा स्थापित धर्म-संष में ही दीक्षित हो।
महावीर ने भ्रश्नुत्वा केवली को जिसने कभी भी धर्म को सुना भी नही, परन्तु चित्त की निर्मलता के
कारण, केवल ज्ञान की कक्षा तक पहुंचाया है। पन्द्रह प्रकार के सिद्धों मे भ्रत्य लिग श्र प्रत्येक
बुद्ध सिद्धों को जो किसी सम्प्रदाय या धाभिक परम्परा से प्रेरित होकर नही, बल्कि श्रपने ज्ञान से
प्रबुद्ध होते हैं, सम्मिलित कर महांवीर ने साम्प्रदायिकता की निस्सारता सिद्ध कर दी है।
बस्तुत. धर्म निरपेक्षता का श्रयं धर्मं के सत्य से साक्षात्कार करने की तटस्थ वृत्ति से है।
निरपेक्षता श्रर्थात् श्रपने लगाव और दूसरो के द्वेष भाव के प्रे रहने की स्थिति। इसी श्रथं मे
जैन दर्शन में धर्म की विवेचना करते हुए वस्तु के स्वभाव को धर्म कहा है। जब महावीर से
पूछा गया कि आप जिसे नित्य, ध्रव श्रौर शाग्वत धमं कहते है वह कौनसा दै ? तब उन्होंने कहा---
किसी प्राणी को मत मारो, उपद्रव मत करो, किसी को परिताथ ने दो और न किसी की
स्वतन्त्रता का अपहरण करो। इस दृष्टि से जैन धर्म के तत्व प्रकारान्तरं से जनतान्तिक
सामाजिक चेतना के ही तत्व है।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि जैन दर्शन जनतान्त्रिक सामाजिक चेतना से प्रारम्भ
से ही भ्रपने तत्कालीन सदर्भों में सम्पुक्त रहा है। उसकी दृष्टि जनतन्त्वात्मक परिवेश में राज-
नैतिक क्षितिज तक ही सीमित नही रही है। उसने स्वत्तन्त्रता और समानता जैसे जनतान्त्रिक
मल्यों को लोकभूमि मे प्रतिष्ठित करने की दृष्टि से श्रहिसा, भ्रनेकान्त और भ्रपरिग्रह जैसे मूल्यवान
{तर दिये हैँ श्रोर बँथक्तिक तथा सामाजिक धरातन प्र धर्मसिद्धातों की मनोविज्ञान श्रौर
समाजविज्ञान सम्मत व्यवस्था दी है। इससे निश्चय ही सामाजिक और श्राथिक क्षेत्र मे
सास्क्रतिक स्वराज्य स्थापित करने की दिशा मिलती है।
मास्कृतिक समस्वय और भावनात्मक एकता
जैन धर्म ने सास्कृतिक समन्वय श्रौर एकता की भावना को भी बलवती बनाया। यह
समन्वय विचार और झाचार दोनो क्षेत्रों में देखने को मिलता है। विचार-समन्वय के लिये श्रनेकान्त
दर्शन की देन अत्यन्त महत्वपूर्ण है। भगवान् महावीर ने इस दर्शन की मूल भावना का विश्लेषण करते
हुए सासारिक प्राणियों को बोध दिया--किसी बात की, सिद्धान्त को एक तरफ से मत देखो, एक
ही तरह उस पर विचार मत करो! तुम जो कहते हो वह सच होगा पर दूसरे जो कहते हैं बह
भी सच हो सकता है। इसलिये सुनते ही भडको मत, वक्ता के दृष्टिकोण मे विचार करो ।
श्राज ससार मे जो तनाव श्रौर दनद है वह् दूसरों के दृष्टिकोण को न समक्षन या विपर्यय
रूप से समझने के कारण है। भ्रगर अनेकान्तवाद के आलोक में सभी व्यक्ति और राष्ट्र
चिन्तन करने लग जाये तो झगड़े की जड ही न रहे । मानव-सस्कृति के रक्षण और प्रसार में
जैन धर्म की यह देन अत्यन्त महत्वपूर्ण है ।
श्राचार-समन्वय की दिशा में मुनि-धर्म झौर गृहस्थ धर्म की व्यवस्था दी है। श्रवृति
মং निवृत्ति का सामजस्यथ किया गया हैं। ज्ञान झौर क्रिया का, स्वाध्याय और सामायिक का
सन्नुलन इसीलिये श्रावश्यके माना यया है। তি के लिये महाव्रतों के परिपालन का विधान
है। वहां सर्वथा-प्रकारेण हिंसा, झूठ. चोरी, ४ झौर परिग्रह के त्याग की बात कही गई है।
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