भारतीय संस्कृति का विकास | Bharatiye Sanskrit Ka Vikash

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Book Image : भारतीय संस्कृति का विकास   - Bharatiye Sanskrit Ka Vikash

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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विषय-प्रवेश १५ चाहिए, क्योकि किसी-न-किंसी कारण से सब सम्प्रदायो कां भ्रादर करना लोगो का कततैष्य है 1 एसा करने से श्रपने सम्प्रदाय कौ उन्नति भौर दूसरे सम्प्रदायो का उपकार होता है । उसके विपरीत जो करता है, वह अपने सम्प्रदाय को भी क्षति पहुँचाता है, और दूसरे सम्प्रदाय का भी भ्रपकार करता है। क्योंकि जो कोट श्रपने सम्प्रदाय की भक्ति में आकर, इस विचार से कि मेरे सम्प्रदाय का गौरव बढ़े, अपने सम्प्रदाय की प्रशंसा करता है और दूसरे सम्प्रदाय की निन्दा करता है, वह वास्तव में श्रपने सम्प्रदाय को पूरी क्षति पहुँचाता है। समवाय (मेलजोल) अच्छा है, भर्थात्‌ लोग एक-दूसरे के धर्म को ध्यानपूर्वक सुने शौर उसकी सेवा करें क्योकि देवताओं के प्रिय की इच्छा है, कि सब सम्प्रदायवाले बहुत विद्वानु औऔर कल्याण का कार्य करने वाले हों । इसलिए जहाँ-जहाँ सम्प्रदायवाले हों, उनसे कहना चाहिए कि देवताओं के प्रिय दान या पूजा को इतना बड़ा नही मानते, जितना किं इस बात को कि सब सम्प्रदायो के सार (तत्त्व) की उन्नति ह्‌ ।” श्रशोक द्वारा प्रतिपादित समवाय (मेलजोल) की भावना भारत के सम्पूर्ण इतिहास मे ओत-प्रोत रही है। इसीलिए यहाँ धामिक दृष्टि से राजाझों ने भ्रत्याचार नहीं किए और न साम्प्रदायिक युद्ध ही हुए। जो दो-एक उदाहरण इस प्रकार के अत्याचारों व साम्प्रदायिक सघर्ष के यहाँ मिलते हैं, वे श्रपवादरूप है। वे भारतीय संस्क्ृति की मुख्य धारा को सूचित नही करते । भारत कै विचारक सत्य, प्रहिसा, श्रस्तेय, ब्रद्मचयं और अपरिय्रह (सम्पत्ति को जमा करने की प्रवृत्ति का न होना) पर बडा जोर देते रहे हैं । इन ब्रतों व श्रादर्शों पर बैदिक, बौद्ध, जैन व पौराणिक विचारकों ने समान रूप से जोर दिया है । हमारे देश की वेयक्तिक व सामाजिक साधना के लिए ये मूल सूत्र रहे हैं। इन झ्रादशशों का पालन कर जहाँ हमारे प्राचीन गृहस्थो व परित्राजको ने जीवन के लक्ष्यो को प्राप्त करनेका प्रयत्न किया, वहाँ हमारे समाज व देश ने भी उन्हीं की साधना भे अपनी शक्ति को लगाया । इसी के परिणामस्वरूप अभ्रशोक ने धर्म-विजय की नीति का प्रारम्भ किया था, भर इसी को सम्मुख रख वार बौद्ध और पौराणिक नेताओरों ने संसार मे अपने घर्मचक्र का प्रवर्तत किया था । पर यह नहीं समभना चाहिए कि श्रध्यात्म की भावना ने भारत की संस्कृति को निष्क्रिय और इहलोक की তল্লনি से विमुख बना दिया था। इस देश के राजा दिग्विजय और चक्रवर्ती साम्राज्य को सदा अपना आदर्श समझते रहे । उन्होंने न केवल भारत में अधितु उसके बाहर भी अपने साम्राज्य को विस्तृत करने का प्रयत्न किया । उन्होने पंजाब शौर अफगानिस्तान की नदियों को पार कर सुदूर बाल्हीक (बल्ख) देश पर भी विजय कायम की । इस देश के व्यापारी धनोपार्जनं के लिए मिस, तेम, जावा, सुमात्रा और चीन जैसे सुदूरवर्ती देशों मे श्राति-जाते रहे । ऐहलौकिक उन्नति की भारतीयों ने कभी उपेक्षा नहीं की। वे 'पारमाथिक' और “व्यावहारिक' मे सदा भेद करते रहे । संसार को मिथ्या प्रतिपादित करने वाले शंकराचारय जैसे दार्शनिक ने भी स्पष्ट शब्दों मे कहा---/व्यावहारिक इृष्टि से तो सभी कुछ सत्य है ।” पारमाथिक सत्य के कारण व्यावहारिक सत्य को इस देश के विचारकों ते कभी श्रपनी दृष्टि से भोल नही किया । उनका यहु विश्वास था कि सच्ची सस्कृति वह॒ है, जो परलोक




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