भारतीय साधना और सूर - साहित्य | Bhartiy Sadhna And Sur- Sahitya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ ७ ।] भारतीय-साधनां की चौथी विशेषता प्रत्येक साधक कौ श्रवश्था के अनुसार उसे साधना में प्रवृत्त करना है । हम सब एक ही परिस्थिति में नही है। जो प्राणी जिस कोदि, श्रेणी या स्थिति में है, बह उसी स्थिति में रहता हुआ्आा साधना कर सकता है। दृत्त का केन्द्र एक है, पर उसकी परिधि के विन्दु श्रनेक हैं और वे सब एक-एक सीधी रेखा के द्वारा उससे सथुक्त हो जाते है। जो विन्दु जहाँ है, उसे वहाँ से किसी दूसरे बिन्दु श्रथवा उसके मार्ग का उल्लंघन नहीं करना पड़ता | वह सीधे श्रपने स्थान से चलकर केन्द्र-विन्दु के साथ एक हो जाता है| इसी प्रकार जो प्राणी जिस अवस्था में है, वह वहीं से अपने अन्तिम लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। वेद ने “विश्वाभिःगीर्मिःईमहे??! कहकर इसी तथ्य की श्रोर संकेत किया है । मारतीय-साधना गुर की महत्ता को स्वीकार करती है। यह उसकी पाँचवीं विशेषता है| वैसे तो सब गुरश्रो का श्रादि शुखं बह परम-तत्व ही है,२ जिसे ब्रह्म, ईश्वर, प्रभु, परमात्मा आदि अनेक नामों से पुकारा जाता है। पर साधना के क्षेत्र में साधक को उस पथ के चीत, पथक्रान्त, द्रष्टा पथिको से भी पथ-प्रदर्शन में पर्यात्र सहायता मिल जाती है। पथ तो उसे स्वयं ही पार करना होता है, पर उस पथ को दिखलाने वाला, मार्ग में आनेबाले कंटक रूप विध्नों से सावधान करने वाला और आवश्यकता पड़ने पर हाथ लगाकर श्रागे बढ़ाने वाला एक समर्थ पथ-प्रदशक चाहिये ही। गुरु का महत्व इसी कारण है | गुरु अविवेकी साधक की आँखों में ज्ञान का अंजन तथा भक्ति का सुरम† लगा कर उसे विवेक-सम्पन्न द्रष्ण बना देता है। वह दीपक हाथ में देकर कहता है-- “इसके प्रकाश में आगे बढ़े चलो ।”” फिर यदि कही स्खलन होता है, तो तुरन्त मागं पर चलने के लिए खड़ा कर देता है, व्य- वधान आने पर समाधान करता है और साधक को उसके गंतव्यस्थल तक पहुँचा देता है । वास्तव में हम सभी यात्री हैं, पथ के पथिक हैं। जब से अपने घर से एथक हुये हैं, तव से चल ही रहे हैं और तब तक चलते रहेंगे, जब तक अ्रपने घर फिर नहीं पहुँच जाते । भारतीय साधना हम सब पथिकों को उस्ती घर तक पहुँचाने का १--अ्रथ वेवेद २०।१६।३ २--पपूर्वेघामपि गुरुःकालेन श्रनबच्छेदात्‌। योग दशन, समाधि पाद, सूत्र २६।




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