काव्य कल्पद्रुम भाग - 1 | Kavya Kalpadrum Bhag - 1`

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१५ भूमिका ্ীন্তঙ্সা भरे दृष्टिनिपातनर्सों उनने बन स्थाम बनाय दिये, खडि पौन सौं नील सरोजन को पखुरीन ज्यों वें अमिराम किये।* इसमें कवि-कुलभूषण कालिदास ने महाराजा दशरथ की सृगया (शिकार) का वर्णन किया हे। 'वेगवान घोड़े पर आरूढ तूणीर से बाण निकालते हुए. राजा की अ्रपने सामने आते हुए, देखकर तितर-त्रितर हुए. मृग-समूह ने अपने अश्रु-प्लावित और समय दृष्टि-पातों से बन को. स्यामल कर दिया |? तीन पदों में यह नेसर्शिक वर्णन हैं और चौये पद में मृग-समूह के उन दृष्टिपार्तों को, पवन के वेग से विखरे हुए, नील क्मल-दलों के चन्द की उपमा दी गई है। इष्ठ उपमा के संयोग से নতুন: इस नैसर्भिक वर्णन की मन मोदिनी दुय मँ श्रपरिभित च्ानन्दकी घय छा गई है । ऊपर के उठहरणों द्वारा ज्ञात हो सकता है कि ध्वनि अथवा अलड्डार- गर्मित काव्य केसा चित्ताक्पंक होता है। इसका आनन्टानुभव सहृदय साहित्यिक |विद्वान्‌ ही कर सकते हैं हां, यह सत्य है कि वस्तु-विशेष किसो को अत्यन्त रुचिकर होती है, वदी दूसरे व्यक्ति फे तादश च्रानन्द- जनक न होकर कदाचित्‌ श्रष्चिकर भी हो सक्रती है ! महाकवि कालिदास ने इन्दुमति के स्र्यम्बर के प्रसक्ष में व्शंन किया है कि अज्जराज से दृष्टि हटाकर राजकुमारी इन्दुमति ने सुनन्‍्दा से आगे चलने को कहा। इसका यह अर्थ नहीं कि वह राजा सोन्दर्यादिगुर-सम्पन्न न था; और यह बात भी नहीं थी कि इन्दुमति, वर की परीक्षा करने में अनिभिन्न थी। १ यह रघुवंश के निश्नलिखिल पद्म का मावानुवाद है-- 'तस्प्रथितं जवनवाजिगतेन राज्ञ तूणीसुखोद्ध.तशसेण विशीणपंक्ति 1 श्यापीचशार वनमाङुलदष्िपते- वतिरितोत्पलदलप्ररैरिवाद्र:




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