बीसवी सदी के अंतिम दशक के उपन्यासों में स्त्री-विमर्श का अध्ययन | Beesavin Sadi Ke Antim Dashak Ke Upanyason Mein Stree Vimarsh Ka Adhyayan

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Beesavin Sadi Ke Antim Dashak Ke Upanyason Mein Stree Vimarsh Ka Adhyayan by सत्य प्रकाश मिश्र - Satya Prakash Mishra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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महत्वपूर्ण रथान प्राप्त था और जीवन के हर क्षेत्र में पुरूष क॑ समान ही प्रगति के समान अवसर उपलब्ध थे। स्त्री को पराधीन बनाने बाली मनोबृत्ति का आरम्भ तो मध्य एशिया की कुशाण जाति से होता है। पाश्चात्य विद्वान जानस्टुअर्ट मिल ने अपनी पुस्तक 'सब्जैक्शन ऑफ वुमैन ' ने स्पष्ट किया है कि स्त्रियों को पुरूषों से बढ़ चढकर बताये जाने के गीत तो सर्वत्र गाये जते है पर यह सब कछ उन्हे प्रसन्न रखने के लिए दही होता है जब कि व्यवहार में ठीक इसके विपरीत दृष्टिगोचर होता हे। नारी जागृति एवं स्वतन्त्रता के लिए प्रयास सदा से होते रहे हैँ चूकि यह मानवोचित अधिकारों को लेकर अठाया गया प्रश्न था अतः विश्व के किसी भी देश में यह चिन्गारी फूट पड़ी. माध्यम भले ही कोई एक महिला बनी हो किन्तु यह आन्दोलन पूरे विश्व को अपने चपेट में लेकर ही रहा। जिसका परिणाम यह हुआ कि सदियों तक घृणा, तिरस्कार अपमान का घट पीती नारी पुरातन मान्यताओं, पर परध्पराओं, रीति-रिवाजो के विरूद्ध आवाज तो उठा रही है। समानता के अधिकारों के लिए पहली बार रोम की महिलाओं ने सन 43 वी.सी. में शंखनाद किया था। उनका प्रतिनिधित्व सुप्रसिद्ध रोमन वकील की पुत्री 'होटैनेसिया कर रही थी । उन्होने राष्ट्र के सर्वेच्च पदाधिकारी के सामने एक ही प्रश्न रखा कि नारी को पुरूष की अपेक्षा हीन ओर तिरस्कृत दृष्टि से क्‍यों देखा जाता है? क्षमता एवं कार्य दक्षता में वह पुरूषों के साथ बराबरी कर सकती है, फिर क्यों उसे शिक्षा एवं प्रशासनिक कार्यों में आगे नहीं बढ़ाया जाता है, उनके पिता स्वयं इस विषय के प्रतिपादक थे! यद्यपि उन्हें उस समय आंशिक सफलता मिली किन्तु सम्पूर्ण विश्व मेँ नारीं जागृति लाने के लिए यह चिन्गारी सिद्ध हुई !




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