गृहस्थधर्म | Grahasthadharm

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Grahasthadharm  by जवाहरलालजी महाराज - Jawaharlalji Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[७] सम्यक्त्व आराधना नही कर सकता। जब सिध्यात्य का कारण मिट जायगा और कारण सिटने से मिध्यात्व सिट जायगा तभी दर्शन की आराधना भी हो सकेगी। भिध्यात्व सिटाकर दशोन की उत्कृष्ट श्माराधना करना श्रपने दी हाथ की वात दै । अनन्ताज्ुवन्धी क्रोच, मान, माधा प्रौर लोभ न गहने से मिभ्यात्व भी नहीं रहेगा श्रौर जब मिथ्यात्व नदीं रहेगा तो दशेन की श्राराधना मी षो सकेगी 1 अनन्तानुबन्धी क्रोधादि को दूर करना भी अपने ही हाथ की बात है। क्घाय को दूर करने से मिथ्यात्व दूर होता है और दर्शन की श्याराघना हेदी ह । विशुद्ध दशेन की श्राराधना करने वाले को कोई धर्मश्रद्धा से विचलित नहीं कर सकेगा, इतना ही नहीं किन्तु जैसे अग्नि में घी की 'आहुति देने से अग्नि अधिक तीत्र चनती है उसी म्रकार धर्मश्रद्धा स विचलित करने का ज्यो-ज्यों प्रयत्न किय जायगा स्थों-त्यों ध्मश्रद्धा अधिक दृढ और तेजपूर्ण होती जायगी। धर्सश्रदा मे किंस प्रकार दढ रदना चाहिये, इस धिषय में कामदेव श्रावक का उदाहरण दिया गया है। धर्म पर दृढ श्रद्धा रखने से और दशन फी विशुद्ध आगधना करने से आत्मा उसी भव में सिद्ध, चुद्ध और मुक्त हो जाता है । २- सम्यक्त्व का स्वरूप ससार में सभी जन सम्यग्दृष्टि रहना चाहते हैं। मिथ्या-हृष्टि कोई नहीं रहना चाहता । छिसी को मिथ्यादृष्टि कक्षा जाय तो उति बुरा मी नगता है | इससे सिद्ध है कि सभी लोग 'सस्यस्टष्टि रहना चाक्षते है और वास्तव में यह चाहना उचित भी है । मगर पहले यह -समम लेता चाहिए कि सस्यकत्त का अर्थ क्या है ? 'सम्यक्‌! का एक अथ प्रशस्ता रूप है और दूसरा अथे अजिपरीतता होता है॥ [1




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