काव्यानुवाद की समस्याएँ | Kavyanuwad Ki Samasyaen

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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नगे साहित्य के अनुवाद की समस्या साहित्य की जो मौलिक परिभाषा है, वह है जिसमे शन्द श्रीर श्रये भे सामजस्य होता है ! महित फा भाव साहित्य है शब्द प्रौर भ्रवं जहां पर एष दूसरे के साथ सयुक्तहो ! दोनो मे से किसी की न्यूनता या झ्रतिरेक न हो, ऐसे साहित्य भर्थात्‌ सहभाव का नमम 'साहित्य' है। दोनों में से किसी का महत्त्व फ्म न हो। दोनों का तादास्म्य हो । यही एक धर्म है जो उसे सगीत श्रौर शास्त्र से भिन्‍त करता है। शास्त्र से साहिर भिन्‍न है, तपोकि शास्त्र मे शब्द वी अपेक्षा प्र्थ का महरुव अधिक होता है। इसी प्रकार, सगीत भी काव्य से भिन्‍तर है। सगीत मे शब्द का ही महत्व है, श्रयं गौण है। इसमे एक ही शब्द को लेकर उमे श्रनक रूपो भेरषाणा सकता है। श्रत दमे साहित्प का अनुवाद कंसे किया जाये ? शब्द भौर प्र्थ पा जहाँ तादार्म्य हो, वहाँ अनुवाद कैसे क्या जाये ? अर्थ के किसी एकक (घटक) के लिए एक ही शब्द हो सकता है। शास्त्र में एक भर्य वा घाचक केवल एक शब्द होता हैं, लेकिन बवित मे श्रथ श्रनेक होते 1 जल, पानी--साधारण शब्दं ध्रापस में एक-दूसरे के समान हो सकते हैं, लेकित काव्य में किसी एक शब्द का अर्थ एक ही होगा । इसलिए काव्य मे एक भ्र्थ का एक ही रूप मे प्रयोग हो सकता है। प्रत इसका भ्रनुदाद व में होगा, यह प्रश्द हमारे सामने है | ऊौचे ने कहा है, अभिव्यक्ति ही व्यजना है। अनुवाद कभी सम्भव हो ही नही सवता। कला या काब्य झमभिव्यक्ति के नाम हैं और ग्रभिव्यव्ति ही कला है या काव्य है लेकिन साहित्य नहीं । भ्रभिव्यक्ित अखण्ड होती है भौर अद्वितोय होती दैश्रौर उसका दसरा स्प नही हौ सकता । काव्य का श्रयं है अभिग्यजना प्रर अभिव्यजना प्रद्वितीय होती है। मत अनुवाद वैसे हो सकेगा ? श्रत जो लोग काव्य के ध्नुवाद की बात करत हैं वे लोग अनुवाद के मर्मज्ञ नही हैं। भौर, जो भनु- वाद हुए हैं वे तो दूसरी कलाइतियाँ हैं। 'शकुन्तला तरै भ्रनेक भ्रनुवाद हुए, 'इलियड!




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