सूरसागर-सार | Sursaagar Saar

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Sursaagar Saar by धीरेन्द्र वर्मा - Dheerendra Verma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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% ` ^ श्ल শর ভে চা 1 = লা 1 ৮ वैराग्य जय शी ७ के जीत काने + ( स ८ ঠা क्म † श क्थ “५ कव्य खरा আশে धृर्चागर भार जती, सती, तापस आराबें, खारों बेद হত सूरदास भगव॑त-भजम बिछु. करम-फॉस न कटे ॥२६॥ भादी कांड सो ল হই! ইউ ४४५० , २. कहाँ बह राहु. कहाँ वे रवि ससि, आनि सजग पर ! मुनि बसिष्ट पंडित अति ज्ञानी, रचि-पतच्चि लगन घरे । तात-मरव, सिय हरन, राम बन बपु घरि विपति भर ! रावन जीति कोटि सेतीसो, बिश्ुवन राज करे । झूत्युहिं बॉँथि कप मे राज, भावी-ब्रस सो मरे | अरजुन के हरि हुते सारथी, सोऊ बतं निकरं) जपद-खुता को राजसभा, दुस्सासन चीर हरे। इरीबंद सो को जशदातः, सो घर नीच भरे । जी गृह दोड़ि देस बहु घाबे, तउ वह संग फिरे । भावी के बस तीन लोक है, सुर नर देह धरे । सूरदास अथु रचीसु हैः को करि सोच मर ५६३.॥ ताने सेइये श्री जदुराड । संपति बिप्ति, बिपति ते संपत्ति, देह को यह सुभाद !. तस्बर फूल, फर, पतमरे, अपने कालहि पाड । सरचर नीर भरे भरि, उस, सूखे, खेह उद़ाइ । লিলা चंद बढ़त ही बाड़े; घटत-घटत घटि जाइ । सूरदास संपदाआपदा, जिनि कोझ पतिआइ ॥३१॥ किते दिन हरि-सुमिर्न बिनु खोर । पर-निंदा रसना के रस करि, केतिक जनम बिशोएं । तेल বাত कियो रुचि-सदंन, बस्तर मलि-मल्ि घोए। तिलक बनाई चले स्वामी है, विषयिति केमुख जोए । काल बली ते सब जग कॉप्यो, अक्षादिक हूँ रोए। सूर अधम की कहो कोन गति, उदर भरें, परि सोए ॥३४५॥ तर ते जनभ पाहू कह कीनो ? उदर स्यो करं सकर ल प्रभु कौ माम्त ने खीनी । श्री भागवत सुनी नहिं भ्रवतनि, गुरु सो्थिं द नहि चीनी । माव-भक्ति कलु हृदय न उपजी, सन विषय में दीनी ।




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