सूरसागर-सार | Sursaagar Saar
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
8 MB
कुल पष्ठ :
240
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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वैराग्य
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कव्य खरा আশে
धृर्चागर भार
जती, सती, तापस आराबें, खारों बेद হত
सूरदास भगव॑त-भजम बिछु. करम-फॉस न कटे ॥२६॥
भादी कांड सो ল হই!
ইউ ४४५० , २. कहाँ बह राहु. कहाँ वे रवि ससि, आनि सजग पर !
मुनि बसिष्ट पंडित अति ज्ञानी, रचि-पतच्चि लगन घरे ।
तात-मरव, सिय हरन, राम बन बपु घरि विपति भर !
रावन जीति कोटि सेतीसो, बिश्ुवन राज करे ।
झूत्युहिं बॉँथि कप मे राज, भावी-ब्रस सो मरे |
अरजुन के हरि हुते सारथी, सोऊ बतं निकरं)
जपद-खुता को राजसभा, दुस्सासन चीर हरे।
इरीबंद सो को जशदातः, सो घर नीच भरे ।
जी गृह दोड़ि देस बहु घाबे, तउ वह संग फिरे ।
भावी के बस तीन लोक है, सुर नर देह धरे ।
सूरदास अथु रचीसु हैः को करि सोच मर ५६३.॥
ताने सेइये श्री जदुराड ।
संपति बिप्ति, बिपति ते संपत्ति, देह को यह सुभाद !.
तस्बर फूल, फर, पतमरे, अपने कालहि पाड ।
सरचर नीर भरे भरि, उस, सूखे, खेह उद़ाइ ।
লিলা चंद बढ़त ही बाड़े; घटत-घटत घटि जाइ ।
सूरदास संपदाआपदा, जिनि कोझ पतिआइ ॥३१॥
किते दिन हरि-सुमिर्न बिनु खोर ।
पर-निंदा रसना के रस करि, केतिक जनम बिशोएं ।
तेल বাত कियो रुचि-सदंन, बस्तर मलि-मल्ि घोए।
तिलक बनाई चले स्वामी है, विषयिति केमुख जोए ।
काल बली ते सब जग कॉप्यो, अक्षादिक हूँ रोए।
सूर अधम की कहो कोन गति, उदर भरें, परि सोए ॥३४५॥
तर ते जनभ पाहू कह कीनो ?
उदर स्यो करं सकर ल प्रभु कौ माम्त ने खीनी ।
श्री भागवत सुनी नहिं भ्रवतनि, गुरु सो्थिं द नहि चीनी ।
माव-भक्ति कलु हृदय न उपजी, सन विषय में दीनी ।
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