प्रणय और परिग्रह | Pranay Aur Parigrah

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Pranay Aur Parigrah by यायावर - Yayawar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(३ अरुण अपने स्थान से उठकर उसके समीप जा खड़ा हुआ । और दुखी-सा हो कर बोला : “तू मुझसे रूठ गई ना, साधना ! ” साधना ने उत्तर नहीं दिया । प्रश्ण ने कहा : “तब तो मैं झ्राज ही हूर लौट जाञंगा | श्रभी ॥' साधना तब भी नहीं बोली । झरुण द्वार की ओर चल पड़ा । साधना ने कनखियों से उसकी ओर देखा | और बह भ्रपना सारा संयर्म खो कर खिलखिला उठी। अरुण स्तम्भित-सा खड़ा हो गया । साधना केश बाँधने के प्रयास में गर्दन को तिरछी करके उसकी श्रौर्‌ देख रही थी । उसके मुख पर अब भी मुस्कान फूटी पड़ रही थी | अरुण ने पूछा : “क्या बात है ? साधना आँखें नचा कर बोली : “शहर सें जाने वाले साहब की सवारी देख रही हूँ ।'' प्रण चिद गया । बहु बोला : “तू नहीं मानेगी ? ” साधना ने सिर हिलाकर कहा : मैंने तो कोई हठ की नहीं, महाशय ! “ मैं मार दूँगा, साधना ! “सो तो तुम्हारा काम है । तुम पुरुष जो ठहरे ।” “और तू क्याहै 1 “प्रबला 1 अझण ने साधना के निकट जाकर उसका हाथ भटक दिया। साधना को केशराशि उसके हाथों ये छूट कर खुल पड़ी । और साथ ही वह फिर खिलखिला कर हँसने लगी । तब वह श्ररुण का हाथ पकड़ कर बोली : “कितने दित्त की छुट्टी आए हो, अरुण ! ग्ररुण ने उत्तर दिया : “छुट्टियाँ तो एक महीने की हैं |! “ग्रन्त तक यहीं ठहरोगे न ?”' “सोचकर तो यही भ्राया था 1 “मब विचार बदल रहा है ?/ + 19 “सो क्यूँ ?




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