महर्षि सुकरात | Maharshi Sukarat

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Maharshi Sukarat  by वेणी प्रसाद - Veni Prasad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ७ ) पानी भिगा सके, न भ्रग्नि जला सके, न वायु सुखा सके । वह सदा एक रस रहता, सबमें व्यापक, श्रचल है, सनातन हैः पर शोक कि इन श्लोकों को श्रपना धार्मिक लकय माननेवाले हम हिंदू मात से केसे थर-थर काँपते हैं श्रौर सम- भते हैं कि इससे बढ़कर कोई बुराई नहीं । केसी ना समझी रै ¦ सुकरात ने कहा है कि मात क्या है, इस पदे की श्रेटट में क्या है यद्द तो काई भी जानता नहीं, पर सब ल्लोग इससे ऐसा छरते हैं कि “भानों खूब निश्चय जानते हैं कि इससे बढ़- कर दूसरी कोई बुराई नहीं |!” मौत दो चीज हो सकती है । या ते अनंत घोर निद्रा जिसमें फिर से जागने का नाम नहीं, या एकदम मोक्ष; या अभ्रसल्षी चीज मरती नहीं केवल आवरण मात्र बदलती है! फिर इतना राना पीटना क्यों ! इसका इतना भय क्‍यों ? सच पूछिए तो इसी से डरकर लोग स्वाधेत्याग नहीं कर सकते श्रार किसी महान्‌ उददश्य को पूरो करने की चेष्टा न कर 'खाश्ने, पीओ, मौज करे” इसी में लगे रहते हैं। इस भूठे भय ने हमें कायर, निस्तेज श्रौर अधर्मी बना दिया है। यदि इस जीवनी को पढ़कर हमारा मृत्युभय कुछ भी कम हुआ या कुछ भी हमें सत्य से प्रीति हुईं ते लेखक का परिश्रम सुफल होगा । इयलम्‌ । विनीत ग्र यकार




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