गुरु गोविन्दसिंह | Guru Govindsingh

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Guru Govindsingh by वेणी प्रसाद - Veni Prasad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ & 1 शक्ति कसोटी पर कसी भो गई श्नौर सच्चा सोना साधित इुई । रूप बदलता गया । अधिकारी पुरुषों को खटका दो गया। वे इस नवीन पल को, दाँ, इसी चवीन धर्मवल को श्रपने झत्याचारो, श्रद्धुचित कार्रवाइयों के समूल उच्छेद का कारण समसने लगे-मन दी मन ढरने शर प्रत्यक्ष रुप से कभी कभी सम्मान भी करने लगे । नवं शुरु तेगरवष्ादुर जी पर . खुल्लमखुर्ला भत्याचार कर, उन्हें श्वपना उपदेश बंद करने के खिये ललकारा गया। पर शान-प्रदोप धल चुका था, उसकी सिग्ध ज्योति बढ़ते बढ़ते प्रचंड ज्वाला के रुप में झा चुकी थी । पर यद्द ज्वाला मी शांत थी । यद्यपि इसकी लपरों ने निर्जीच ठंढे भारतवासियों के हाथ पैर गर्म करने रंभ कर दिए, पर झभी तक उसने लोगों की श्रेतरात्मा फो दत्साद रूपी उप्णुता नहीं पहुँचाई थी। शुरू तेगवद्दादुर के घलिदान, धर्म्मार्थ चलिदान दोने से, सरे वाजार फोलाद के नीचे सिर रख देने से, इस ज्वाला ने, इस यश ने, उपयुक्त दवा पा श्पना भचंच रप धारण किया । चारो शोर रोशनी फैल गई । अंधी को भी लाल लपक सी सू गई। उनके हृदय भी शरु के रक्त से श्रपना रक्त मिलनि के लिये उमड़ झाए। जिलके यशकुंड की रचना, गुरु नानक देव जी ने की, जिसमें प्ली झाइति गुर शज्ुनदेव जी की पड़ने से समिधा श्रज्वलित हरं भौर दुसरी आहृती शरु तेगवदाबुर जी की पड़कर बह यूरो होने के निकट झा पहुँची, उसमें पूर्णाइति का सौभाग्य




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