अष्टाध्यायी - भाष्य - प्रथमावृत्ति | Ashtadhyayi Bhashya Prathamavritti

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Ashtadhyayi Bhashya Prathamavritti  by पं. श्रीब्रह्मदत्त जिज्ञासु - Pt. Shreebrahmdatt Jigyasu

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सिद्धियो का परिशिष्ट भलग १३ विदित रहे कि प्राजकल दाड्आा समाधान ही इतना प्रवल भौर जटिल कर दिया गया है कि, पढने-पढने वालों को यह मी पता नही रहता कि सूत्र का यह भर्थ चन कंसे गया | सस्कृत पाठको ने देखा होगा कि लघुकौमुदी में इको मणि (६४१ ७४) पढाते समय भारसम्म में ही यह पढाया जाता है कि 'प्रचि ग्रहण किसथेसू! ? इस सूत्र में श्रच्‌ ग्रहण क्यों कर दिया, মী লী ভাল লী মলম में यह पूरा बंठा भी नही कि, सूत्र का ्र्ष क्या हुआ, उदाहरण क्या है, उसमे सूत्र घटा कैसे ? भौर भच्‌ ग्रहण का क्या प्रयोजन है ? यह छात्र के मस्तिष्क में विना समझाये थोपा जाता है जिसे छात्र पूरा-पूरा रटता है। क्‍या बात बनी पता कुछ नदी, यही टा सर्वत्र चल गया इसलिये আনার प्राय, प्रधमा वा मध्यमा वाले को भी नहीं पढा सकते ३ सस्दत समाज कहा से कहा पहुंच गया । 11 सुत्र का श्रर्थ कैसे बस गया सोन तो पढाने वाले को पता, न पढने वाले को, “भवसागर मे डूबते बेठ पत्थर की नाव” यही प्रग्ध परम्परा चल पडों \ नही ठो पुरा काल म वडे-वडे वैयाकरण भी मूलाष्टाध्यापी का प्रतिदिन पाठ करके पाठकरके गद्दी पर बैठते थे । श्री १७ वाल क्षास्त्री, प० दामोदर शास्त्री, पूज्य तिवारी जी भ्रादि सब महावेयाकरण प्रतिदिन श्रष्टाध्यायी का पाठ करके पाठ पढानदा झारम्म करते थे। वह भ्ष्टाध्यायी प्रव बीच में से लुप्त हो गई । खेद तो यह है कि ऋण्वेदी मूलाप्टाष्यायी भ्रत्यन्त शुद्ध कण्ठस्थ करके भी चही लघु कोमुदी-सिद्धान्त-कौछुदी की वृत्ति कण्ठस्थ करने लगे॥ इतना घोर प्रत्धकार फैल गया १ उन्हे तो अध्टाध्यायी पर से पढाने 111 (क) विद्येष-- (१) हमारे सामने तो सस्क्ृत म जानने वाले या बहुत कम जाननेवाले प्रोढ व्यक्ति रहे, प्रत: उनको कठिनाई न हो, इस दृष्टि से हमने कठिन सन्धि लगभग इस प्रथम भाग में छोड दी है । ऐसा हमने जानकर किया है, अत पह दोपावह नहीं ॥ वहत से शर्व्दो के रूप कठिन पडते ये हमने यथासम्भव समभतेवलि कौ दृष्टि से सरलता रवौ 1 भ्फने पाण्डिप्य कौ चिन्ता हमने नही की, प्रौढ छात्रो कौ चिन्ता मुख्य रही । स्वय स्वाध्याय इारा पठने वालो को कटी किना न पडे इसका हमने पूरा ध्यान रखा है। सब सूत्रो की सख्याए देते हैं ताकि पाठक इस ग्रन्य मे ही वही- वहीं सूत्र निकाल-निकाल कर भी वह वात भ्रासानी से समझ लें । ५ (२) उका समाधान दितीयावृत्ति का विपय मानकर हमने जानकर उसे प्रयमावृत्ति में नहीं दिखाया ३ इमारा दृढ विश्वास हे कि इससे प्रथमावृत्ति में नही दिखाया । हमारा दुढ विश्वास है कि इससे प्रथमावृत्ति मे बडीभारी बाघा उप- स्थित होती है ॥ छात्र के पल्‍ले कुछ नहीं पडता । वह भ्रमजाल में ही घूमने लगता




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