मोक्षमार्ग प्रकाशक की किरणें | Moksha Marg Prakashak Ki Kirnen

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रथम अन्याय १३ सतशास्र स्वाधीनता के। बतढाकर वीतरागता की पुष्टि करते हैं । जे शास्त्र ऐसा बताते हैँ कि दैव, गुर, शाख के भव. ऊम्बन से ओर उने प्रति राणसे धर्म हाया; उन्हीं का जीवों के शरण है; वे शाख जीव के पराधीनता बतलाकर राग का ही पोषण करानेवाले हैं, वे सतशात्ष नहीं हैं। सवशात्र ते ऐसा बतढाते हैँ कि देव-शुरु-शात्र छा अवलमस्बन भी आत्मा के धर्म के चयि नदीं है, इसका भी रक्ष्य छोडकर अपने स्वभाव का लक्ष्य कर-ऐसी स्वाधीनता ओर वीतरागा के दर्शाते हैं । यदि शास्त्रों में युद्ध आदि का वर्णन हेता वह विकथा नदी, किन्तु वैराग्य पेपक्र कथा है । तीर्थकर भगवान के पास इन्द्र नृत्य करते हैं, वहँ। अगार भाव की पुष्टि का हेतु नहीं हे, किन्तु अपना अशुभ राग छोडकर वीतराग जिनदेव के प्रति भक्ति का, बसे ही छागों के भी भक्तिप्रेम कराने का तात्परया है, इस्र प्रकार शसमें भी जीव कुमार्गों से वचकर संतूधर्मा की ओर उचन्पुख हां-ऐसा देतु है । इससे यदि सतशासत्र में बृत्यादि का वर्णन भये वा वद्‌ विक्था नदीं टै) जाखे विक्था के चार प्रकार कहे हैं; उनमें जे शब्द हैँ चद विक्था नहीं है । खयं के अंगोपांग इत्यादि का एव' युद्ध आदि का वर्णन ता निन्य सुनिराज भी करते है; मात्र इका र्णन करना




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