पृथिवी - पुत्र | Prithivi - Putra

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Prithivi - Putra by श्री वासुदेवशरण अग्रवाल - Shri Vasudevsharan Agarwal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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रं पृथिवी-पुत्र हमारे नेत्रो का तेज सो वर्ष तक बढ़ता रहे, ओ।र उसके लिए हमे सूर्य की मित्रता प्राप्त हो ( ३३ ) । चारो दिशाओं में प्रकाशित मातृभूमि के चतुरखशोभी शरीर को जाकर केंबने के लिए हमारे पेरा मे सचरणशीलता होनी चाहिए | चलने से हो हम दिशातच्रौ के कल्याण तक पटु चते है (स्योनास्ता मह्य चरते भवन्तु ३१) | जिस प्रदेश में जनता को पदपक्ति पहुँचती है, वही तीर्थ बन जाता है | पद-पक्तियों के द्वारा हो मातृभूमि के विशाल जनायन पथा का निर्माण होता है, भ्र,र यात्रा के बल से हो रथो के वर्त्म ओर शकटो के मागं ममि पर निछते हैं (ये ते पथा बहवो जनायना स्थस्य वर्त्मानतश्च यातवे, ४७) | चक्रमण के प्रताप से पूर्व अ।र पश्चिम मे तथा उत्तर ओर दक्षिण में पथों का नाड्री-जाल फल जाता है | पव॑त। ओ।र मद्दाकातारा को थूमियाँ युवका के पढ-स चार से परिचित होकर सशोभित होती हैं। “चारिक चरित्वा? ক্কা লল धारण करने वाले चरक-स्नातक पुरा ओर जनपदा में ज्ञान-मगल करते हैं अं,र मातृभूमि को समग्र शोभा का आविष्फार करते हैं। आर भिक भू-प्रतिष्ठा के थिन हमारे पूर्वजों ने मातृभूमि के स्वरूप का घनिष्ठ परिचय प्राप्त किया था। उसके उन्नत प्रदेश, निरतर बहने वाली जल-धाराए्‌ श्र।र हरे-भर समतल मेंदान--इन्द्ने श्रपनी रूप-सपदा से उनको आकृष्ट किया (यस्या उद्बत प्रवत सम बहु, २) | छोटे गिरि- जाल अर हिमराशि का श्वेतमकुट बाबे हुए महान्‌ पर्वत पथिवी को टे खड़े हैं। उपके ऊ चे श्र्ठा पर शिल,भूत हिम, अवित्यकाओ! में सरकते हुए हिमश्रथ या बफानी गल, उनके सुख्ब या बाक से निकलने वालो नदिया अर तटात म बहने वाला सहलो घाराए, पर्वतस्थली ओर द्रोणो, निर्भर ऋ्रर कूलतो 5ई नदी की तलहटिया, शेला के दारण से बनी हुई द्री ओर कद्राए,; पर्वद। के पार जाने वाले जोत अर घाटे---इन सबका अध्ययन भे।मिक चेतन्य का एक आवश्यक अग है । सं,भाग्य से विश्वकर्मा ने जिस दिन अपनी हृवि से हमारो भूमि की आराधना को उस दिनि ही उसम पवंतीय अर पर्यात मात्रा में रख दिया था | भूमि का तिलक करने के लिए मानो




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