बन्दनवार | Bandanwaar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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बन्‍्दंनवार वेश में आ खडा हुआ है। हमारे देश मे भी उसका वह रूप कुछ दिनों से दिखाई दे रहा था। रवीन्द्रनाथ भी अपने अन्तिम दिनो में इस ओर तीघत्-*रूप से सचेत हो रहे थे । उनके अन्तिम दिनो मे उनकी ध्यान-धारणा से, वाणी में ओर वाणी-रूप में एक सुस्पष्ट परित्रतन दिखाई दिया था, सभ्यता के संकट ने केवल उन्हें दिलाया ही नहीं, उनको কৃছি में वह रूप अहण करने लगा। उन्होंने समझा कि काल्लान्तर हो रहा है । उनकी जिज्ञासा तीच्ण हो उठी । नये सुर से, नई बातों में उनकी अभ्व््यक्ति होने लगी । जब कवि का दृष्टिकोण बदलता हैं तो वस्तुतः उसे परीक्षा-युग से गुजरते हुए नया रास्ता हदता पडता है, क्योंकि जब जीवन-सत्य ही रूपानतरित हो ऊाय तो न पुरानी भाषा काम दे सकती है, न पुरानी रीति ही कविता की प्रतिभा को अग्रसर करती है। बेंगला-साहित्य के विकास से, जैसा कि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने स्वीकार किया था, सबसे अधिक प्ररणा यूरोप से प्राप्त हुईं थी । गोपाल हालदार के सतानुसार रवीन्द्र-काव्यधारा कौ विवेचना करते हुए हम कवि को नीन युगों से लांधते हुए देखते हं । निस्सन्देह हमे : यहां एक महान्‌ प्रतिभा के महाप्रयाण का दर्शन होता है। एक युग वह हैं जिससे कवि 'मानसी” से स्वदेशी युग को पार कर गीतांजलिः, 'गीतिमाल्य” (राज? ओर 'डाकघर' के युग को अतिक्रम कर हमे “'बल्लाका' के द्वार तक पहुँचा देता है जिसमें महायुद्ध के मन्थन-काल से प्रभावित कवि का युद्धान्तचर्ती युग था। क्योंकि गोपाल हालदार के शब्दों से रवीन्द्रनाथ-काव्य की ओर से भी देखा जाय तो उसमें भी पर्व से पर्बान्तर है, सुक्तधारा!, হক কহ? के साथ (शेषेर कविताः, (मह्याः, 'पूरबी” का योग और पार्थक्य दोनों हे | किन्तु यह दूसरा युग शेष होने लगा 'पुनश्च'ओर परिशेष मे । फिर तीसरा युग आता है जिसमें कवि देखता हे कि युगान्तर नही कालान्तर हो रहा है । यह वस्तुतः एक नवीन सस्य का युगहे जव कचि ने जीवन को विशालतर परि- पक्तण(पसपेविट्व) मे देखा । यह दूसरे महायुद्ध के प्रारम्भ ओर परमार्थ का समय है । इस प्रकार हम देखः हैँ कि महायुद्धो के वीच की व्रेगल्ा कचिता मे रवीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा नूतन स्पर्दा, नूतन शक्तित और नृतन सृष्टि का आविभोाव हुआ | रत्रीन्द्रनाथ की कविता के अन्तिम युग में हमे कुछ अति आधुनिक कवियों के दर्शन होते हैं जो यह मठ रखते थे कि न केवल प्रस्येक युग में युग की {8




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