भारतीय अर्थशास्त्र भाग 1 | Bhartiiya Arthshastra Bhag-1

Bhartiiya Arthshastra Bhag-1 by एस० जी० बेरी -S. G. Barrieजी० बी० जथार -G. B. Jathar

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जी० बी० जथार -G. B. Jathar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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क्षेत्र तथा परिभाषा र ४. भारतीय अथंशास्तर : अध्ययन का एक श्रज्ञग विषय--इस स्वीकृति से कि अथं- शास्त्र केवल एक है, हमारे लिए यह मानने में कोई बाधा नहीं है कि प्रत्येक देश को ग्राथिकं स्थिति का प्रलग-प्रलग श्रध्ययन न केवल उचित है वरन्‌ अनिवाये भी है। यह बिलकुल स्पष्ट है कि ऐसे अध्ययन के अभाव में आथिक नीति ग्रलत समझी जा सकती है और वह देश के सच्चे हितों के लिए हानिकर हो सकती है। भारतीय अर्थशास्त्र को अ्रध्ययन का एक अलग विषय कहने से हमारा यही तात्पय है। फिर भी हमें यह सोचने की ग़लती नहीं करनी चाहिए कि भारत की आर्थिक परिस्थितियों का अध्ययन किसी भी प्रकार से अन्य देशों के ऐसे ही अ्रध्ययन से पूर्णातया भिन्‍न है । *&. भारतीय अथंशास्त्र भारत के उदाहरणों सहित अथशास्त्र के नियमों का आख्यान मात्र नहीं है- मूमि, श्रम, पुजी, उत्पादन, वितरण और विनिमय आदि सामान्य शीर्षकों के अन्तर्गत भारतीय अर्थशास्त्र की विभिन्‍न समस्याओं का अध्ययन सम्भव है। इससे हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि (भारतीय ्रथंडास्व' केवल भ्राथिक नियमों का एक विवरण है, जिसमें भारतीय आर्थिक जीवन के तथ्यों को उदाहूरणो के रूप में समाविष्ट कर दिया गया है । इसमें सन्देह नहीं कि अपरिचित स्थितियों से दिये गए उदाहरणों की अपेक्षा भारत के उदाहरणों के साथ अ्ज्ञास्त्र के सिद्धान्तों को भारतीय विद्यार्थी अधिक आसानी से ग्रहण कर लेगा । फिर भी इसे “भारतीय भ्र्थ- शास्त्र” कहलाने का कोई अधिकार नहीं है। भारतीय ब्र्थशस्त्र पूरी तरह भारत के आश्थिक जीवन की स्थितियों और.समस्याओं का ही एक तथ्यपरक अध्ययन है । ब्रथं- शास्त्र के सिद्धान्तो का निर्देश वहीं तक उचित है जहाँ तक कि वे इन समस्याओ्रों और स्थितियों को समभने में सहायक हो । नर भारत के सम्बन्ध में इस प्रकार के अलग-अ्रलग अध्ययन को हम भारतीय अर्थशास्त्र” कहते हैं, ठीक वेसे ही जैसे कि ब्रिटिश परिस्थितियों के ऐसे ही ्रघ्ययन को हम “ब्रिटिश अर्थशास्त्र” कह सकते हें । ब्रिटेन के आथिक जीवन के विभिन्‍न रूपों जैसे बेकिंग (बेंक-व्यवहार), मुद्रा, यातायात, कृषि आदि के सिद्धान्त-ग्रन्थ “ब्रिटिश अर्थ॑- शास्त्र' से ही सम्बन्धित माने जा सकते ह्‌ । ६. रानाड का बहुमूल्य कायं--उन्नीसवीं शतान्दी के भ्रधिकांश भाग भें देश की सर- कारी नीति अनावश्यक रूप से सिद्धान्तपरक थी । आथिक सिद्धान्तो के परिकाल्पनिक स्वरूप की उपेक्षा कर यहाँ की आर्थिक नीति प्रथंडास्त्र कौ लोकप्रिय अंग्रेजी पाठ्य- पुस्तकों में दिये हुए आथिक नियमों पर आ्राधारित थी। स्वतन्त्र व्यापार (४7९८ 1790८) इंगलेंड के लिए हितकर था, अतएव इस बात पर जोर दिया गया कि वह भारत के लिए भी हितकर होगा । राज्य-प्रनतिपात (हस्तक्षेप न करने की नीति) अंग्रेज़ी परि- स्थितियों के उपयुक्त थी, इसलिए कहा गया कि यह नीति भारत के लिए भी उतनी ही लाभप्रद होगी--यद्यपि भारत में व्यक्तिगत साहसोद्यम करीब-करीब था ही नहीं, और यदि था भी तो बहुत कम विकसित । सरकार द्वारा अर्थशास्त्र के निष्कर्षों के पालन का आग्रह कभी निच्छलदहोताथा तो कभी कपटपूरं । बहुत से विचारदील लोगों के मत से आशिक विषयों में सरकारी नीति भारत के सच्चे हित के लिए उप-




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