जैनधर्म का प्राण | Jaindharma Ka Pran

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Jaindharma Ka Pran by सुखलाल - Sukhalal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१५ १९ হি ও ४. ब्रह्मचयं का ध्येय ओौर उसके उपाय--१३१; ५ ब्रहमाचयं के स्वरूप की विविधता और उसकी व्याप्ति-१३३; ६. ब्रह्मचयं के अतिचार--१३६, ७. ब्रह्मचयं की निरपवादता १३९ । ‡ आवश्यक क्रिया १३८--१४७ आवश्यक क्रिया की प्राचीन विधि कहीं सुरक्षित है--१३९; आवश्यक किसे कहते है---१३९; आवद्यक का स्वरूप--- १४०; सामायिक---१४०; चतुविशतिस्तव---१४१; वंदन --१४१; प्रतिक्रमण प्रमादवश-- १४२; कायोत्सगें---१४४, प्रत्याख्यान---१४४;. क्रम की स्वभाविकता तथा उपपत्ति---१४५;*' आवश्यक-क्रिया' की आध्यात्मिकता-- १४५; प्रतिक्रमण शब्द की रूढि---१४७। : जीव और पंचपरमंष्ठी का स्वरूप १४८-१५६ जीव के सम्बन्ध मं कुछ विचारणा--१४८, जीव का सामान्य लक्षण--१४८; जीव के स्वरूप की अनिवेचनीयता--१५०; जीव स्वयसिद्ध हैया भौतिक मिश्रणो का परिणाम ?--१५०; प्रच परमेष्ठी-- १५१; पत्र परमेष्टी के प्रकार--१५१, अरिहन्त ओर सिद्ध का आपस में अन्तर--१५२; आचार्य आदि का आपस में अन्तर--१५२; अरिहन्त की अलौ- किकता--१५३; व्यवहार एव निश्चय-दुष्टि से पाचो का स्वरूप--१५४; नमस्कारके हेतु ब उसके प्रकार--१५४; देव, गुर ओर धमं तत्त्व -- १५९ } १२ : कमंतत्त्व १५७-१७९५ कर्मवाद की दीधेदृष्टि-१५७; शास्त्रों के अनादित्व की मान्यता-- १५७; कमंतत्व की आवश्यकता क्यो--१५८; शर्म, अर्थ और काम को ही मानने वाले प्रवर्तक---धर्मवादी पक्ष--१५९; मोक्षपुरुषार्थी निवंतक--घमंवादी पक्ष-- १६०; कर्मतत्तव सम्बन्धी विचार জীব उसका ज्ञाता-वग-




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