जैनधर्म का प्राण | Jaindharma Ka Pran
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
14 MB
कुल पष्ठ :
235
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१५
१९
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४. ब्रह्मचयं का ध्येय ओौर उसके उपाय--१३१; ५ ब्रहमाचयं
के स्वरूप की विविधता और उसकी व्याप्ति-१३३;
६. ब्रह्मचयं के अतिचार--१३६, ७. ब्रह्मचयं की
निरपवादता १३९ ।
‡ आवश्यक क्रिया १३८--१४७
आवश्यक क्रिया की प्राचीन विधि कहीं सुरक्षित है--१३९;
आवश्यक किसे कहते है---१३९; आवद्यक का स्वरूप---
१४०; सामायिक---१४०; चतुविशतिस्तव---१४१; वंदन
--१४१; प्रतिक्रमण प्रमादवश-- १४२; कायोत्सगें---१४४,
प्रत्याख्यान---१४४;. क्रम की स्वभाविकता तथा
उपपत्ति---१४५;*' आवश्यक-क्रिया' की आध्यात्मिकता--
१४५; प्रतिक्रमण शब्द की रूढि---१४७।
: जीव और पंचपरमंष्ठी का स्वरूप १४८-१५६
जीव के सम्बन्ध मं कुछ विचारणा--१४८, जीव का सामान्य
लक्षण--१४८; जीव के स्वरूप की अनिवेचनीयता--१५०;
जीव स्वयसिद्ध हैया भौतिक मिश्रणो का परिणाम ?--१५०;
प्रच परमेष्ठी-- १५१; पत्र परमेष्टी के प्रकार--१५१,
अरिहन्त ओर सिद्ध का आपस में अन्तर--१५२; आचार्य
आदि का आपस में अन्तर--१५२; अरिहन्त की अलौ-
किकता--१५३; व्यवहार एव निश्चय-दुष्टि से पाचो का
स्वरूप--१५४; नमस्कारके हेतु ब उसके प्रकार--१५४;
देव, गुर ओर धमं तत्त्व -- १५९ }
१२ : कमंतत्त्व १५७-१७९५
कर्मवाद की दीधेदृष्टि-१५७; शास्त्रों के अनादित्व की
मान्यता-- १५७; कमंतत्व की आवश्यकता क्यो--१५८;
शर्म, अर्थ और काम को ही मानने वाले प्रवर्तक---धर्मवादी
पक्ष--१५९; मोक्षपुरुषार्थी निवंतक--घमंवादी पक्ष--
१६०; कर्मतत्तव सम्बन्धी विचार জীব उसका ज्ञाता-वग-
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